रविवार, 18 अक्तूबर 2015

तेरी निर्भीक पत्रकारिता को अपन ..सलाम ठोंकता है बॉस

हैप्पी बर्थ डे प्रभाश जोशी (15 जुलाई पर विशेष)


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हैप्पी बर्थ डे प्रभाष जोशी!!
...............................
लिखने वाले बहुत ही पैदा हुए
तुम्हारे जाने के बाद
तुमबनने की बहुतों ने
असफल कोशिश की

...कुछ ने तो मान लिया
अपने आपको
तुम्हारा फिलर
पर हो गये धराशायी....
क्योंकि वो नहीं बन सके
तुम्हारे जैसा क्रिकेट का फैन
और क्रिकेट में भारत की जीत पर
अपनी खुद की खुशी को
गुदगुदानेवाले लहजे में
नहीं कर सके बयान...

...यहां तक कि
वो नहीं रख सके
जन की सत्ता को कायम...
तुम्हारे जाने से चाटूकारों ने
ली होगी राहत की सांस..

सच में ! तुम्हारे एक बार मरने से
कई बार मरी पत्रकारिता
...पर मुझे खुशी है
तुम्हारा खौफ अभी भी कायम है
उनके बीच
जो करते हैं चाटुकारिता
तुम्हारा खौफ अभी भी कायम है
तुम्हारे समय के
गंदी और हत्या की राजनीति
करनेवालों के बीच
मुझे गर्व है
तुम्हारी सशक्त पत्रकारिता का भूत
सिर चढ़कर बोलता था
राजसभा और विधानसभा में..
..
तो प्रभाष जोशी!
अपन तुझे तेरे जन्मदिन पर
करता है याद
हर रविवार को
बेसब्री से
तेरे स्तंभ कागद कारे
का इंतेजार करनेवाला मैं
तुझे मिस करता है...
तुझे और तेरी निर्भीक
पत्रकारिता को
अपन सलाम ठोकता है बॉस!


 -राकेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

मैं सार्वजनिक हो गया

बहुत दिन हुए
एक कविता नहीं लिखी
बहुत दिन हुए
एक कहानी नहीं पढ़ी
जब-जब प्रयास किया
कविता ने मुझे लिख दिया
और कहानी ने मुझे पढ़ लिया
अफसोस
मैं सार्वजनिक हो गया
सबके लिखने पढ़ने में
- राकेश कुमार श्रीवास्तव

बड़ा कठिन है एक भिखारी बनना

न चाहते हुए भी
दिख ही जाते हैं
भिखमंगे
खैरात में दे ही देते हैं लोग
दुआएं लाखों
अगर ये उनका ढोंग नहीं है
तो
बिना कठोर परिश्रम के
जैसे मुश्किल होता है एक ओहदा हासिल करना
स्नातक, स्नातकोत्तर होना
ऐसे ही कठिन होता होगा
एक भिखारी बनने में
-राकेश कुमार श्रीवास्तव

सीट पा लेने का सुख

घर पहुंचने की होड़ में
थके हारे काम से चूर...
डेली-पैसेंजरी करते लोग
ट्रेन कम्पार्टमेंट के दो सीटों की गैलरी में खड़े
ताक में रहते हैं
चेहरे पर उदासी लिये
कि कहीं कोई अगले स्टेशन पर उतरे
जिससे उन्हें भी छोटी सी राहत मिल सके
जो उनके लिये कहीं बड़ा है किसी
भी बड़े सुख या बड़ी कामना से
उस सीट को पा लेने में ही-
उस सीट को हासिल कर लेने में ही
अपने गंतव्य तक के लिये-
उनकी बड़ी सफलता है
वे लोग जब जगह पा लेते हैं
कोई आकर देखे
उनके मुख पर छा गये
कुछ पलों के लिये का वह सुख
वह राहत, वह खुशी
जोकि किसी नेता को
एक चुनाव जीतने के बादवाली
सीट को
हासिल करने में शायद ही हुई हो!
-राकेश कुमार श्रीवास्तव

कसौटी

जमीन खा जाती है
जमीर को
और जमीर?
कभी कभार
जमीर भी
खा जाता है जमीन को
मगर विडंबना!
कि जमीन ही
अधिकतर हावी रहती है
जमीर पर
जमीर का जमीन पर
हावी होना तो
सिर्फ एक घटना होती है
जो सिर्फ और सिर्फ
मिशाल बनकर ही रह जाती है
जिसे लोग
चरित्र में न ढालकर
केवल बच्चों के पढ़ाने के काम में लाते हैं!
- राकेश कुमार श्रीवास्तव

सुलझन

पहले तो जिंदगी को
उलझने मत दो
गर उलझ जाये...
क्या हुआ कि उसमें पड़ जाय गिट्ठा ही
उसे तोड़ो-सुलझाओ
फिर जोड़ो एक धागे की भांति
उसके बाद इतना पीछे हटो
बाकी बचे धागे को खोलते हुए--
कि धागे में पड़ा गिट्ठा
ओझल हो जाय आंखों से
विश्वास करो
बहुत समय बचा लोगे तुम!
- राकेश कुमार श्रीवास्तव

क्या हम असामयिक मौत को टाल नहीं सकते?

आमतौर पर जब किसी की मौत हो जाती है तो लोग अक्सर यह कहकर संतोष कर लेते हैं कि उसका समय हो गया था इसलिये चला गया। हर किसी की मौत के पीछे कोई न कोई प्रत्यक्ष कारण या बहाना लोगों के पास जरुर रहता है क्योंकि काल-कवलित हो चुके इंसान को वापस नहीं लाया जा सकता। फिर भी कुछ बातें या वारदातें ऐसी होती हैं कि जिसे मन मानने को तैयार नहीं होता है। चाहे वह अपना हो या न हो। रोज-रोज ऐसी खबर पढ़ते-पढ़ते लोगों का मन थोड़ा कठोर हो जाता है और बिना किसी भावना के वह इसकी चर्चा भी करता है कि फलाने जगह यह वारदात हुई तो चिलाने जगह यह और इतने लोग मरे.. खैर जब अपनों की बात आती है तो हम कमजोर पड़ जाते हैं लेकिन हम सबको इस पर थोड़ा विचार जरुर करना चाहिए जैसे कि यदि हम असावधानी नहीं बरतते तो शायद यह घटना टल भी सकती थी। जैसे कि आसनसोल में ट्रेन से गिरकर अधेड़ की मौत हो गई। गिरनेवाले को किसी ने धक्का दे दिया कि वह स्वयं गिर गया यह बात अंजानी है। यदि वह गिर गया तो वह बच भी सकता था यदि वह गेट पर असावधानी से खड़ा न होता। जामुड़िया में बेकारी से त्रस्त युवक ने फांसी लगा ली। इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा? क्या हमारी सरकार? जिसका कार्य करने के प्रणाली में कहीं न कहीं भारी चूक है? या फिर उसके घर वाले जो उसकी बेकारी पर हमेशा घर में कलह किया करते थे? शायद वे भी नहीं। क्योंकि अभावग्रस्त परिवार में कलह होना आज के समय में आम बात है। तो बेकार युवक को इस प्रकार से कदम नहीं उठाना चाहिए था यदि घर में कलह हो रही थी तो उसे कहीं दूर दिल्ली, मुंबई काम के लिए निकलना था। लेकिन आत्महत्या करना जरुरी नहीं था। जो भिखारी मर गया उसके बारे में लोग ये कहते हैं कि वह पागल था। तो अब यह प्रश्न उठता है कि कोई पागल और भिखारी एक साथ कैसे हो सकता है? पागल कभी मांग कर नहीं खाता है। उसे खिलाना पड़ता है या फिर खाना देना पड़ता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि वह कुछ दिनों से बीमार चल रहा था तो क्या उनलोगों को जरा सा भी यह दिमाग में नहीं आया कि उसका किसी डॉक्टर से आपस में मिलजुल कर इलाज करा दें? समाचार के अनुसार उसके परिवार वाले वहीं पास ही में कहीं रहते थे तो क्या कम से कम उनको सूचना नहीं दी जा सकती थी? सबसे अंत में जो मौत की खबर है वह हृदय विदारक है वह यह कि एक पांच वर्षीय बच्ची का बुखार से मौत हो जाना। ये तो सबसे हास्यास्पद बात है आज जहां कैंसर व टीवी और एड्‌स जैसी बीमारियों को ठीक करने के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं वहां एक बच्ची सिर्फ बुखार की वजह से मर जाती है? इसका जिम्मेवार कौन? क्या बच्ची के अभिभावक...जिनका कहना है कि बच्ची को पिछले कुछ दिनों से बुखार रहा करता था। क्या उन्होंने समय से डॉक्टरों को दिखाया? यदि दिखाया भी तो क्या डॉक्टरों ने बच्ची का सही से इलाज किया? शायद वह बच सकती थी। लेकिन समाचार के अनुसार जब बच्ची की हालत बहुत खराब हो गई तब उसे अस्पताल ले जाया गया। कुल मिलाकर हमें सिर्फ यह कहना है कि भावनात्मक व सुरक्षात्मक स्तर पर हम हर जगह से सावधान रहें तो शायद ये सब घटनाएं टल सकती हैं। खैर.. ये सब दुखदायी खबरें हैं।

ट्रेन से गिरकर अधेड़ की मौत
आसनसोल, 11 मार्च (नि.स)। आसनसोल रेल मंडल के अंडाल एवं वारिया रेल स्टेशनों के बीच मंगलवार की सुबह अप मेन लाईन पर एक अधेड़ शख्स का क्षत-विक्षत शव पाया गया। सूचना पाकर पहुंची अंडाल जीआरपी ने शव को कब्जे में कर उसे अंत्यपरीक्षण हेतु जिला अस्पताल भेज दिया। मृतक के कपड़ों से मिले दस्तावेजों के अनुसार उसकी शिनाख्त आसाम के ढाकुरखाना थानांतर्गत लक्खीपुर गांव के निवासी गिरीश धुंआरा (40) के तौर पर हुई है। जीआरपी सूत्रों ने बताया कि वह संभवतः सोमवार की रात हावड़ा की ओर जा रही किसी ट्रेन से गिर गया होगा। मृतक के परिजनों से संपर्क कर उन्हें घटना की जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है।

बेरोजगारी से परेशान युवक ने लगाई फांसी
जामुड़िया, 11 मार्च (नि.स)। जामुड़िया थाने के श्रीपुर गांव के रूईदासपाड़ा निवासी खोकन बाऊरी (33) का फांसी से लटकता शव मंगलवार की सुबह उसके आवास पर पाया गया। सूचना पाकर घटनास्थल पर पहुंची पुलिस ने साड़ी से लटकता शव उतार कर अपने कब्जे में किया व अंत्यपरीक्षण हेतु जिला अस्पताल भेज दिया। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार खोकन बीते कई दिनों से बोरोजगार था जिसे लेकर उसके घर में रोजना अनबन होती रहती थी। संभवतः इन्हीं कारणों से परेशान होकर उसने यह कदम उठाया हो।

विक्षिप्त भिखारी का शव मिला
चित्तरंजन, 11 मार्च (नि.स)। चित्तरंजन थाने के अमलादही मार्केट के समीप राह किनारे मंगलवार की सुबह एक भिखारी का शव पाया गया। सूचना पाकर पहुंची पुलिस ने शव को कब्जे में कर अंत्यपरीक्षण हेतु आसनसोल जिला अस्पताल भेज दिया। पुलिस सूत्रों ने बताया कि मृतक जय प्रकाश सिंह (50) मानसिक रोगी था व उसका घर करीब में ही है। मानसिक तौर पर अस्वस्थ होने के कारण वह घर छोड़ कर बाजारों में भटकता रहता था व भीख मांग कर खाना खाता था। वह अमलादही मार्केट के दुकानों के शेड के नीचे रात गुजारता था। लोगों ने कहा कि बीते कुछ दिनों से उसकी तवीयत खराब लग रही थी।

बुखार से पीड़ित बालिका ने तोड़ा दम
जामुड़िया, 11 मार्च (नि.स)। जामुड़िया थाने के जवा गांव के निवासी दीपक मुदीकोड़ा की पुत्री वर्षा मुदीकोड़ा (5) की मृत्यु मंगलवार को हो गई। दीपक ने बताया कि बीते कुछ दिनों से वर्षा को हल्का-फुल्का बुखार रह रहा था। मंगलवार की सुबह उसे अचानक उल्टियां होने लगीं जिसके चलते उसे आसनसोल जिला अस्पताल लाया गया जहां चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

जो होता है अच्छा होता है

देवराहा बाबा का अक्सर कोई मुंहलगा भक्त जब अपनी कार्यसिद्धि के लिये उनसे हठकर बैठता था तो बाबा कहते, "बच्चा जैसा तुम चाहते हो वह हो जाय तो अच्छा ही है किंतु न हो तो और भी अच्छा!" एक बार गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व आचार्य तथा अध्यक्ष डॉ. भगवती प्रसाद सिंह ने महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराजजी से देवराहा बाबा की इस बात का जिक्र करते हुए पूछा था कि गुरुदेव! देवराहा बाबा के इस कथन का आखिर रहस्य क्या है? कविराजजी बोले, "ठीक ही तो है ...बाबा का तात्पर्य रहता है कि यदि निवेदक का इष्ट सिद्ध हो जाय तो उसकी इच्छा पूरी होती है.. यह प्रारब्धानुसार होता है जो सामान्य बात है किंतु परिणाम उसकी इच्छा के विपरीत होने पर भगवान की इच्छा पूरी हो रही है , यह समझकर ईश्वरीय न्याय को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए.
आस्तिकता की यही कसौटी है."

नाई दिलाता है याद

नाई दिलाता है याद
मुझे
मेरी मां की
मेरे पिता की
दीदी की
मेरे भईया की
....जब वह (नाई)
बड़ी तल्लीनता से
मेरी दाढ़ी बनाने के बाद
मेरा मुंह तौलिये से पोंछता है
ठीक उसी समय याद आती है मुझे
दीदी जो इसी प्रकार
मेरे स्कूल जाने के पहले
मेरे नहा लेने के बाद गमछे से मेरा
सर व मुंह पोंछती थी
जो दूर है और चली गयी है अपनी ससुराल
पिता की तो बात ही क्या
उन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी
अपनी नन्हें संतानों को
उनकी छोटी-छोटी जरुरतों की
कोई भी सेवा देने में
जो हमारे समय में आज
नहीं हैं वर्तमान
मां आज बीमार है
फिर भी कभी-कभी प्यार से पोंछ देती है वह मेरा मुंह और सर
या फिर मैं ही पोंछ लेता हूं कभी-कभी पसीने से तर-बतर
उसके आंचल से अपना मुंह
अपने कर्मप्रधान समय में वह भी दे चुकी हैं
अपनी हर संभव सेवा
सबसे बड़ी बात मां को नहीं पड़ती जरुरत
किसी भी तौलिये या गमछा या अंगोछे की
बीमार मां जो बमुश्किल ही उठ पाती है अपने बिस्तर से
अपनी आंचल से पोंछती है हमारा मुंह
और भर देती है हमें प्यार से

- राकेश कुमार श्रीवास्तव

अच्छा हो या बूरा बात करते रहिए

पुरानी बातों को भूलकर बात करने की कोशिश करनी चाहिए। अपनों से हम कब तक मुंह मोड़े रह सकते हैं? अपनों को यूं नहीं छोड़ा जा सकता। हमें अच्छी बातों को याद करनी चाहिए। स्वयं में या अपने बच्चों में नफरत की भावना बोकर हमें क्या मिलेगा? सोचिए जरा! कौन कब इस दुनिया से रुखसत हो ले कोई नहीं जानता। तो फिर हमने कभी सोचा क्या कि हम अपने पीछे अपने बच्चों के लिए क्या छोड़े जा रहे हैं? क्या सिर्फ नफरत के बीज? ऐसा करके हमें कुछ हासिल तो हुआ नहीं मगर एक चीज जरूर हुआ और वह कि हमारे अहंकार का पोषण। जो हमारी समझ रूपी चक्षु पर पर्दा डालकर हमें सच्चाईयों से दूर रखता है। और कभी भी आगे नहीं जाने देता और हमसे सिर्फ अन्य के नजरिये के तहत वह करवाता है जो अगले की मंशा है और हमें मौलिक से रूढ़ीवादिता की ओर ढकेल देता है जिससे कभी किसी का फायदा नहीं हुआ। अगर ज्ञान का अहंकार है तो आप संपूर्ण ज्ञानी कभी नहीं हो सकते। कान है मगर उसमें पर्दा भी है इसलिये नहीं कि हर बात को हम दूसरे की दृष्टिकोण से सुने व समझें बल्कि उस पर्दे के माध्यम से हम हर बात को चाय की तरह छानकर अपने विचार और दृष्टिकोण से समझें तो पता चलेगा कि हम जीवन में बहुत कुछ खोते-खोते बच गये। ऐसा नहीं होने से हम पाते-पाते रह गये इसका अफसोस करने से भी कोई फायदा नहीं होगा। हम कब चेतेंगे..जब सबकुछ हाथ से छुट जाएगा तब? हम क्या कभी एक मत, एकानंद का भोग नहीं कर सकते? एकांतवाद अच्छी चीज है अगर ये भगवान या स्वयं से साक्षात्कार के लिए हो तो जन्म-मरण के बंधन से मनुष्य को निवृत्ति मिल सकती है। मगर अपनों से एकांतवाद करने से क्या फायदा जब आप परायों के साथ तो महफिल कर रहे हैं और अपनों को छोड़े हुए हैं। इससे न तो आपके मन का विकास हुआ और न ही आपके विचार का। ढूंढने और पता करने की कोशिश कीजिए ....क्या पता आपके लिए आपका कोई अपना कराह रहा हो, कलप रहा हो और आपके प्रति अपनी कल्पनातीत आशाओं में आपको अपने करीब रहने का ख्वाहिश रख रहा हो। इसे आप कब समझेंगे। बात कीजिए। बात करने से बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है। अहंकार को छोड़ प्रेम की तरफ बढ़ने की एक नहीं हजार कोशिश कीजिए। आपको महसूस होगा कि आप जिस आनंद की तलाश में थे वह यही है। और आप जिस वजह से अशांत थे उसका भी कारण वही था। अगर आप छोटे हैं और कोई बड़ा आपसे बात नहीं कर रहा है तो अपनी सोच और उदारता की परिधि बढ़ाईये और बड़े की मुंह में उंगली डालकर बात कीजिए। आपको पता चलेगा कि वह आपसे दो टूक बात करने के लिए हर पल कितना बेचैन था और आपके बात नहीं करने पर दुखी भी। बात करके देखिए आपको आनंद मिलेगा। अगर छोटा बात नहीं करता है तो हम उसके मुंह में उंगली डालकर बात कर सकते हैं क्योंकि वह छोटा है और आप बड़े ... आप महसूस करेंगे कि वह छोटा आपकी एक आवाज सुनने के लिए आपको कितना मिस कर रहा था। क्या हमें नहीं लगता कि हमारी बातचीत सिर्फ बर्थडे, एनीवर्सरी एवं किसी खास ओकेशन तक ही सीमित होकर रह गई है? आनंद बाहर ढूंढने से नहीं मिलता और न ही इसके लिए किसी खास ओकेशन की जरूरत है। आनंद हर क्षण किया जा सकता है। हमें तो कभी-कभी पढ़े-लिखे उन गंभीर तबके के लोगों से वे अनपढ़, गंवार लोग ज्यादा समझदार लगते हैं जिन्होंने आपस में मारपीट की, गाली-गलौज किया शाम होते-होते कंधे से कंधा मिलाकर चल दिया। तो हम भी चेतें तो अच्छा है। कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात सोचें, कंधा देने का बात कभी नहीं सोचें। हर जगह ज्ञान काम नहीं करता। जिन बच्चों को हम लालन-पालन करते हैं हम उन्हीं से बहुत कुछ सीख सकते हैं.. क्योंकि हमने उन पर कभी हाथ उठा दिया उनको रूला दिया लेकिन क्या कमाल की बात है न कि वे थोड़े देर में कैसे सहज हो हमसे हंसने -बोलने लगते हैं....तो फिर अपनों को अपने करीब लाने के लिए हम क्यों नहीं एक सहज बालक की भूमिका में आ सकते हैं? बच्चे हमें बहुत कुछ सीखा सकते हैं। published- in Bharatmitra Hindi Daily.

दीदी को भी कोई दूसरा कहता है क्या


2.11.2014
कल शाम को कोई जब आया और कॉलबेल बजाया तो भाभी ने जाकर दरवाजा खोला। धोबी कपड़े देने आया था। अभी भाभीजी कपड़े काउंटिंग में लगी हुई थीं कि उसी का फायदा उठाकर मेरी नन्ही बेटी पड़ोसी के खुले दरवाजे देखकर बेधड़क उनके घर में चली गयी। पड़ोस में भी एक बच्ची रहती है वह उसी के साथ खेलने की लालच में चली गयी। पुणे जैसे बड़े शहरों में आमतौर पर सब अपने-अपने को लेकर ही व्यस्त रहते हैं। सारे 'बड़े' परेशान हो गये। पड़ोसी महोदय/महोदया भी परेशान हो गये। हालांकि महोदया उपरी मन से कहती रहीं छोड़ दीजिए..खेलने दीजिए बच्ची है। लेकिन वे दरवाजे खुले ही छोड़कर बाहर ही इंतजार करती रहीं कि कब हम उसे उठाकर अपने पास ले आयें। हम जब उसे लाने की कोशिश किये तो वह (गरिमा ने) बिल्कुल ही आने से मना कर दी। आखिरकार पड़ोसी महोदया ने अपनी समझदार बच्ची को आंखों से ईशारा किया कि वह बाहर बरामदे में चली आये ताकि मेरी बच्ची भी बाहर आ जाए। अपनी मम्मी के कहने पर वह बाहर तो आ गयी साथ में मेरी बच्ची भी लेकिन वह भी तो आखिर बच्ची ही थी। वह मेरी बच्ची के साथ खेलती रही। फिर उक्त पड़ोसी महोदया की बच्ची ने मां की क्रूर आंखों के ईशारों से भयभीत होकर घर में चली गयी और मेरी मिसेज जबरदस्ती गरिमा को घर में खींच कर ले आयी। गरिमा जोर-जोर से रोने लगी। घर के अंदर भैया ने उसे हल्की सी डांट लगाई, कहा कि आइंदा से उधर गयी तो फिर तुम्हारी खैर नहीं। भैया ने उससे कान पकड़ने को कहा उसने कान पकड़ा फिर यह कहने को कहा कि फिर उधर नहीं जाएगी उसने ना में सर हिलाया। उसका रोना देखकर उसे मैं दूसरे कमरे में मनाने के लिए ले आया। उससे मैंने कहा कि अब कहीं नहीं जाओगी न। वह बोली नहीं जाएंगे पापा। फिर उसने कहा कि बड़ी मां ने मुझे दीदी के साथ नहीं खेलने दिया। मम्मी ने भी मुझे दीदी के साथ नहीं खेलने दिया। बड़े पापा ने भी दीदी के साथ नहीं खेलने दिया। मैंने उसे समझाया कि बेटे दूसरों के घरों में नहीं जाया करते हैं। अचानक से गरिमा ने मुझे समझानेवाले लहजे में मुझसे सवाल किया और कहा कि पापा दीदी को भी कोई दूसरा कहता है क्या। दीदी तो दीदी होती है। फिर मुझे क्यों नहीं खेलने दिया उसके साथ। मैं निरुत्तर था। बस मुंह से यही निकला कि कल दीदी के साथ हम दोनों खेलेंगे बाबु!

हम और बेचारे ये कुत्ते

मैं यह पूछना चाहता हूं कि क्या किसी ने मिस्टर एंड मिसेज बिल्ली को सरेआम रमण करते हुए देखा है?...नहीं...न....अगर देखा भी होगा तो उन बिल्लियों को पता नहीं होगा कि उन्हें कोई देख रहा है। बिल्लियों को यदि यह आभास हो जाये कि कोई उन्हें देख रहा है तो वे वहां से हट जायेंगी.. लेकिन कुत्ते को हम सभी ने देखा है सरेआम रमण करते हुए... इसका कारण क्या है.. क्या कभी आपने ध्यान दिया है...इसके पीछे के रहस्य के बारे में हमारे पुराण कुछ बताते हैं..कि कुत्ते ही क्यों सरेआम सड़क पर रमण करते हुए देखे जाते हैं और उन्हें रोकनेवाला आज हममें से कोई नहीं है अगर कोई देखता भी है तो उन्हें नहीं रोककर खुद ही...अगर परिवार के साथ हैं....या अपने किसी छोटे के साथ ...चाहे वह हमारा छोटा भाई हो बहन हो या फिर बेटे-बेटी हों.....हम उनसे नजरें चुराकर वहां से चल देने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
अर्जुन ने धनुर्विद्या का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और द्रुपद की सभा में रखी गयी प्रतियोगिता में राजकन्या द्रौपदी को जीतकर उन्हें अपनी पत्नी बनाकर घर लाये और विनोद में माता कुंती को यह कह दिया कि देखो माता हम तुम्हारे लिये क्या लाये हैं.. माता ने समझा कि जरुर कोई खाने वाली वस्तु होगी। पूर्व वाक्य की तरह माता ने दोहरा दिया कि आपस में बांट लो... और फिर न चाहते हुए भी माता कुंती की बात रखने के लिए पांचों भाईयों को द्रौपदी का पति बनना पड़ा। खैर.. जब भी कोई द्रौपदी के साथ एकांत कमरे में होता उस समय उसका चरण-पादूका (चप्पल या जूता) दरवाजे के सामने ही होता जिससे कोई अन्य भाई पादूका देखकर समझ जाय कि कमरे के अंदर द्रौपदी के साथ कोई भाई पहले से है। इस प्रकार कमरे में कोई भी भाई द्रौपदी के साथ एकांतवास ही करता।
खैर..एक बार द्रौपदी के साथ युधिष्ठिर एकांतवास कर रहे थे। उनका पादूका दरवाजे के सामने ही था। अर्थात् वे कमरे में जाने के पहले बाहर ही चप्पल खोलकर अंदर गये थे। उस समय भी शायद चप्पल चमड़े का ही रहा होगा। कुत्ते ने क्या किया कि युधिष्ठिर भाई साहब का चप्पल उठाकर वहां से हटा दिया। अर्जुन भाई साहब को भी जोर की लगी थी। वे जब द्रौपदी के कमरे में जाने को उत्सुक हुए तो बाहर कोई भी चप्पल जूता न देखकर धड़धड़ाते हुए कमरे के अंदर सीटी बजाते और गुनगुनाते हुए घुस गये। लेकिन वहां तो युधिष्ठिर भाई साहब तो द्रौपदी के साथ रमणरत थे। (अब यह मत पूछियेगा कि दरवाजा बंद क्यों नहीं करते थे तो भाई साहब उस समय घर होते थे चौखट होता था पर दरवाजा कहां होता था...सतयुग...द्वापर..त्रेता या फिर कहें कि ईश्वर का युग था तब चोरी का भय नहीं होता था इसलिये दरवाजे को यहां प्रवेशद्वार ही समझिए।) छोटे भाई ने बड़े भाई को रमणरत अवस्था में देख लिया। युधिष्ठिर को गुस्सा आया। युधिष्ठिर अर्जुन को अभी शाप देनेवाले ही थे कि द्रौपदी ने उन्हें रोक लिया...द्रौपदी ने कहा कि शाप मत दीजिए आपका भाई है..युधिष्ठिर ने कहा कि तुम तो कहोगी ही क्योंकि तुम्हारा तो पोजीशन उसने देखा है तुम क्यों नहीं उसका सपोर्ट करोगी.. खैर युधिष्ठिरजी ने अपने गुस्से को पी लिया। अर्जुन जिस तेजी से अंदर गये थे उसी तेजी से सॉरी भईया कहकर बाहर भाग आये।
खैर युधिष्ठिर भाई ठीक-ठाक होकर जब बाहर आये और बाहर ही अपराधी की तरह खड़े अर्जुन से पूछा कि ऐसी गलती तुमने कैसे की जबकि हमारे बीच अंडरस्टैंडिग है कि जब एक का चप्पल बाहर रहेगा तो अन्य किसी भाई को अंदर नहीं आना है। अर्जुन ने कहा कि बात तो सच है भईया लेकिन बात ये है कि बाहर तो आपका चप्पल मौजूद था ही नहीं इसीलिए मैं धड़धड़ाता हुआ अंदर आ गया था। युधिष्ठिर ने अवाक होकर पूछा.. क्या मेरा चप्पल बाहर नहीं था? ऐसा कैसे हो सकता है? किसने हटाया मेरा चप्पल? आज मैं उसको छोड़ूंगा नहीं। युधिष्ठिर जब इधर-उधर ढूंढते हुए गये तो देखा कि उनका चप्पल बड़े चाव से उनका कुत्ता चबा रहा है। युधिष्ठिर महाराज ने कहा कि आज तुम्हारी वजह से मेरे भाई ने मुझे रमण करते हुए देख लिया है......कुत्ता चप्पल चबाता रहा और चबाते हुए पूछा...तो? इसमें मैं क्या कर सकता हूं? ...युधिष्ठिर ने उसकी बातों को दोहराया.. तो? तुमने इतना बड़ा अपराध किया और मुझी से पूछ रहे हो ..तो? कुत्ते ने कहा कि आज मुझे कुछ नहीं मिला तो आपका चप्पल ही चबा रहा हूं.... युधिष्ठिर ने अपना आपा खो दिया और शाप दिया... कुत्ते..! आज तेरी वजह से मेरे भाई ने मुझे रमण करते हुए देख लिया... तो सुन! मुझे तो सिर्फ एक ने देखा है रमण करते हुए.....मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम्हें सारी दुनिया रमण करते हुए देखेगी।
इसलिये आज ये बेचारे कुत्ते… शरम तो बहुत हैं इनके अंदर लेकिन... युधिष्ठिर के शाप के मारे ये बेचारे कुत्ते....उन्हीं के शाप का नतीजा है कि आज ये सरेआम सड़क पर रमण करने को मजबूर हैं और सारी दुनिया इन्हें ऐसा करते हुए देखती है...

इस कथा के युग-युग बीत गये।
अब लगता है कि किसी दिव्य कुत्ते ने इस शाप को वापस इंसानों में लौटाना शुरु किया है। कुत्ते जब सरेआम रमण करते हैं तो इसके पीछे एक पौराणिक कथा कार्य कर रही होती है युधिष्ठिर का श्राप कार्य कर रहा होता है..जो कि पुस्तकों में लिपिबद्ध हो चुकी हैं। अब हो सकता है कि ऐसी ही कोई घटना घटी हो जो कि पुस्तकों में अभी तक नहीं आयी हो या किसी की जानकारी में अब तक यह बात नहीं है.... यह शोध का विषय है कि आखिर इंसान अब सरेआम ‘करने’ पर उतारु क्यों हो रहा है? क्या युधिष्ठिर का श्राप वापस लौटकर इंसानों पर कार्य करना शुरु कर दिया है? हे युधिष्ठिर महाराज आपने यह क्या किया?

.....तो चलिए थोड़ा बहुत शोध हम ही कर लेते हैं.....

बात तो बहुत दिनों की हो गयी।

...हो सकता है कि किसी कुत्ते ने इतने दिनों तक तपस्या कर किसी महादेवता या फिर शिव को प्रसन्न कर लिया हो तो शिवजी ने पूछा होगा कि हे स्वान बता तेरी चाहत क्या है...तो उसने कहा होगा कि एक कुत्ते की गलती की सजा आज पूरी कुत्ते जाति को भुगतना पड़ रहा है प्रभु ये अन्याय बर्दाश्त नहीं होता अतः आप हमें ऐसी बेशर्मी से मुक्त करें....प्रभु ने कहा होगा कि शाप तो शाप होता है मैं तुम्हें उससे मुक्त तो नहीं कर सकता लेकिन तुम्हें थोड़ा सुख जरुर दे सकता हूं... वो कैसे प्रभु? प्रभु ने कहा वो तो तुम तय करोगे...कुत्ते ने बहुत सोचा होगा और फिर प्रभु के सामने ये मांग रखी होगी कि जिस प्रकार से हमारा रमण सारी दुनिया देखती है इन इन्सानों के कारण उसी प्रकार से इन इन्सानों का रमण भी हम कुत्ते और सारी दुनिया देखे...भगवान ने सोचा और कहा ये ठीक है लेकिन मैं सारे इंसानों के लिये नहीं कह सकता जो भक्ति परायण हैं धार्मिक हैं और सात्विक हैं उन्हें छोड़कर जो तमोगुण से भरपुर हैं उनके रमण को तुम और दुनिया देख सकती है... अगर ऐसे वर चाहिए तो बोलो...दिव्य कुत्ते ने सोचा होगा कि अगर मैं भी युधिष्ठिर की तरह बन जाऊं तो कुत्ते और इंसान में भला फर्क क्या रह जाएगा इसलिये कुत्ते ने थोड़ी मर्सी दिखाई और कहा प्रभु यही कर दीजिए और भगवान ने कह दिया होगा...तथास्तु !
.........और शायद इसी का नतीजा है..हम आज बड़े शहरों में दिन-दहाड़े किसी फैंसी पार्क में युवा लड़के-लड़कियों को, आज के दौर में अपटूडेट कहलाने वालों को प्यार के नाम पर ‘किस’ से शुरु हो हर कुछ करते हुए देख लेते हैं।

शायद इसी का नतीजा है....बड़े स्तर पर फेसबुक के माध्यम से हजारों युवा-युवतियों ने संगठित होकर एक विशेष संगठन के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए ‘किस डे’ मनाने पर उतारू हो गये हैं। हालांकि पुलिस ने उन्हें रोक दिया। सरकार से मैं यही कहना चाहूंगा कि सबसे लड़ा जा सकता है मगर शाप से नहीं लड़ा जा सकता। आज जब कुत्ते सरेआम करते हैं तो किसने उनका क्या बिगाड़ लिया बहुत सारे साम्राज्य आये और गये मगर कुत्ते बिचारे शापमुक्त नहीं हुए। आप क्या सोचते हैं कि पहले के इतने बड़े-बड़े साम्राज्यों में इन कुत्तों के ‘कुकृत्यों’ के प्रति कोई कुछ नहीं किया होगा..तो आप गलत समझते हैं.....अतः अगर ये कुत्तों द्वारा दिये गये या वापस किया गया श्राप है तो वास्तव में इसके साथ जूझना दीवाल पर सर पटकने के बराबर है। अतः अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए भले ही आप इन मनचलों को कुछ भी करने से रोकिये लेकिन इन मनचलों को प्यार करने से न रोकिये नहीं तो इनके प्यार की आग....आगे कुछ भी कहना वाजिब नहीं लगता है। जय श्रीराम !
........जारी......
हम और बेचारे ये कुत्ते
जारी....
संदर्भः हजारों युवा-युवतियों द्वारा आयोजित किस ऑफ लव कैंपेन

1916 में लिखी गयी थॉमस हार्डी द्वारा लिखी गयी कविता ...इन द टाइम ऑफ ब्रेकिंग ऑफ द नेशन का संदर्भ कभी खतम नहीं होगा। लड़का-लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षित होना...प्यार से मिलना एक दूसरे के प्रति इमानदार होना...एक दूसरे से वादा करना ......इन सब का संदर्भ कविता के तीसरे पैराग्राफ से हमें मिल जाते हैं। तीनों पैराग्राफ में जिन दैनन्दिन बातों की चर्चा कवि ने की है उनका संदर्भ कभी खत्म नहीं होने वाला...न हुआ और न कभी होगा।

IN THE TIME OF BREAKING OF THE NATION
--------------1-------------
ONLY a man harrowing clods
In a slow silent walk,
With an old horse that stumbles and nods
Half asleep as they stalk.
--------------2-------------
Only thin smoke without flame 5
From the heaps of couch grass:
Yet this will go onward the same
Though Dynasties pass.
--------------3-------------
Yonder a maid and her wight
Come whispering by; 10
War's annals will fade into night
Ere their story die.

इनमें एक अच्छाई है .....वह यह कि न ये हिंदू हैं...न मुसलमान...न सिक्ख और न ईसाई....ये सिर्फ इंसान हैं और वो भी कौन से ....प्यार के राही सिर्फ और सिर्फ और सिर्फ प्यार के राही आज फिल्मों और सीरियलों में जिस प्रकार से संपत्ति एक बहुत बड़ा विषय है उससे भी बड़ा विषय है दो जवां दिलों के धड़कन... दो जवां दिलों का प्यार...ऐसी फिल्में बनती रहेंगी और सुपरहिट होती रहेंगीं..दो जवां दिलों के बीच का यह प्यार जो किसी के मिटाने से मिट नहीं सकता....मिटाने की कोशिश करनेवाले मिट जाएंगे...और इनका प्यार वैसे का वैसा ही रहेगा..बिल्कुल जवां.. आज हम इसे अश्लीलता का तमगा दे दें या कुछ भी कह लें। सिर्फ कथित सज्जन इसे पर्दे के पीछे या फिर बंद कमरे में करने का हवाला देते हैं लेकिन इन युवाओं को इनका तमीज नहीं...इन्हें तो बस अपने प्यार से मतलब है ....दुनिया जाये चाहें भाड़ में। और ऐसा ही होना चाहिए और होता है। समाज तो बहुत सारे नियमों को बनाते बिगाड़ते बीतते रहा है..

हमारा अहंकार

परायों को ठुकराना आसान है..
क्योंकि उनसे हमारा 
खुन का रिश्ता नहीं है..
वहां हमारा अहंकार बड़ा होता है..
ठुकराये गये अपनों को अपनाना बड़ा ही कठिन..
चाहते हुए भी नहीं अपना पाना..
यहां भी एक ही वजह है..
हमारा अहंकार बड़ा होता है.

क्या होता यदि मोदीजी का अपनी पत्नी से रिश्ता होता.

.रिश्ता होता तो आज मोदीजी किसी पत्नी पीड़ित इंसान की तरह किसी बियर बार में बैठकर अपना ग़म गलत कर रहे होते और सिर्फ अपनी ही समस्याओं को सुलझाने में उलझे होते..फिर न देश मोदी को जानता और न दुनिया जानती..और मोदी न सीएम होते न पीएम...और देश की बड़ी समस्याएं किसी अन्य मोदी के इंतजार में होतीं
..मैं नहीं जानता उनके बीच ऐसा क्या हुआ था जो उन्हें अलग होना पड़ा..लेकिन आज मोदी के जलवे, दूरदर्शिता और तुरत व सटीक निर्णय लेने के जज्बे को देखते हुए ये कहना पड़ता है कि...Once upon a time Modi has taken a well decision.

कैसे लिखें ज्ञ और क्ष Android Mobile पर

कुछ भाई को ज्ञान लिखने के लिये ग्यान लिखना पड़ता है अर्थात् जानते हुए भी 'ज्ञ' लिखने के लिये 'ग्य' लिखना पड़ता है. यूं तो कंप्यूटर पर इनस्क्रीप्ट की-बोर्ड में टाईपिंग के दौरान हमें (शिफ्ट 5) पर 'ज्ञ' मिल जाता है लेकिन एंड्रायड यूजर को 'ज्ञ' ढूंढने से भी नहीं मिलता है तो फिर कैसे लाएं 'ज्ञ'? इसके लिये हमें यह जानना जरूरी है कि यह शब्द बना कैसे है यह जानने पर ही हम इसे आसानी से टाइप कर सकते हैं ....
'ज्ञ' बना है ज और ञ के योग से.
ज का आधा और ञ पूरा.
अर्थात् ज+्+ञ='ज्ञ'
इसी प्रकार क+्+ष='क्ष'

ईश्वर से बड़ा दयालू कोई नहीं

ईश्वर ने तो आजतक किसी का बुरा चाहा नहीं और न ही वे कभी किसी का बुरा करते हैं..सब तो अपने कर्म का ही फल भुगतते हैं न! मेरी दादी एक कहावत कहती थी..मिले डोम को डोम..मिले सोम को सोम..एक बार तो हम अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी उसके पाप उजागर होने पर माफ करने को तैयार नहीं होते हैं ..लेकिन देखिये ईश्वर इतना दयालु होता है कि पापी से पापी व्यक्ति भी उसकी शरण में जाता है तो वे सबकुछ भूलकर उसके पाप के ताप को कम करने की कोशिश करते हैं.

क्योंकि मां का कोई विकल्प नहीं है...

एक मां पर सौ पत्नी कुरबान...
पत्नी तो फिर भी मिल जाएगी
क्योंकि पत्नी का विकल्प है पर..
मां का विकल्प नहीं है..
तो फिर उन पत्नियों का क्या
जो एक मां भी हैं
और उन बच्चों का क्या ..
जो उन पत्नियों की संतानें हैं...
है कोई उनका विकल्प?
क्योंकि मां का कोई विकल्प नहीं है...

लट्ठमार माफी

लोगों के 'आशीर्वाद' से जिंदगी में हम बहुत आगे पहुंच आये हैं जहां भी गये जिसके पास भी गये लोगों ने कहा आगे जा..आगे जा..पर अफसोस मंजिल अभी भी बाकी है..पर पता नहीं क्यूं बिना कोई अपराध किये ही हर रोज सैकड़ों लोग हमसे माफी मांगते रहते हैं..कहते हैं...माफ करो...वैसे माफी मांगना विनम्रता का पर्याय होता है मगर एक बात समझ में आजतक नहीं आयी कि अस्सी फीसदी (शायद फिसड्डी) लोग कुछ इस तरह से माफी मांगते हैं जैसे कि डांट रहे हों..जिसे कह सकते हैं लट्ठमार माफी..जब माफी ऐसे मांगते हैं तो ये माफी देते कैसे होंगे..ये मारने की यदि सोच लें तो बिना अस्पताल गये ही टिकट कट जायेगी..समझ में नहीं आयी कि ये ऐसे माफी क्यों मांगते है भला?

क्योंकि ठगिनी का तो उन पर एहसान था..

वो कहते रहे कि 
लोगों को समझने का ठेका
उन्होंने ही लिया था
कब्र तक पांव पहुंचे 
..तो पता चला
नज़रिया किसी और का था
चश्मा किसी और का
चश्मा जब तक उतरा
अफसोस के लिये
कोई घर नहीं बचा था
पश्चाताप करके भी होता क्या
न वो उदास सुनहरे पल ही बचे थे
न सताये गये लोग
बचा था तो सिर्फ
कंक्रीट का खंडहर
अब वो चाहकर भी
कुछ नहीं कर सकते
जिन्होंने उन्हें चुपके से
काला चश्मा पहना
सारी दुनिया काली दिखाने में हासिल कर ली थी सफलता
अव्वल तो उन्होंने उनके चश्मे में
एक सूई सी सुराख कर
हरी साड़ी में
उस सुराख से आती हुई
नज़रों को घेर
उनके लिये उम्मीद की एक नई किरण..
एक नई रश्मि बन अपने एहसानों का बोझ डाल दिया कि देख ले मुझे
उम्मीद की एकमात्र किरण तुम्हारे ईर्द गिर्द इस घनघोर स्वार्थी अंधकार में..
वो कहते रहे कि उनसे बड़ा न्यायकर्ता कोई नहीं..
वास्तव में वे थे भी..
उनसे कभी किसी पर अन्याय होता नहीं देखा गया..
उन्होंने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किया..
पर शक्तिशाली तो वे थे ही..
और हाथी को कहां पता चलता है..
कि अंजाने में वह कितने चींटियों को मसलता जाता है
उन्होंने कभी जुल्म नहीं किये
जुल्म तो बस हो गये..
क्योंकि वो तो अपनी नज़रों से दुनिया को देखते थे..
पर ठगिनी
तो उनकी आंखों पर अपनी समझदारी का शीशा चढ़ाने में हो गयी थी कामयाब
वो बहुत न्यायप्रिय थे
पर कब वो बिना रिश्वत के ही
बिना दूसरे पक्ष को सुने एकतरफा फैसला देना शुऱू कर दिया था उन्हें पता नहीं था
जब तक पता चला वो ऐश्वरिक न्याय के घेरे में थे....और दूर एक पत्थर पर अपनी कामयाबी पर बैठकर वह ठगिनी अट्टहास
किये जा रही थी
मगर वो तो एहसानो में दबे हुए थे
मगर थे तो न्यायप्रिय!
सहर्ष सजा भुगतने को तैयार हो गये..
भगवान ने उन्हें स्वर्ग दिया पर एकांतवास का..
वो न्यायप्रिय थे..
वो न्यायप्रिय थे..
मगर एहसानों में दबे हुए
उन्हें पता नहीं चला कि
अपने नीचे जाने अंजाने कितनों को
कितने निरीह व बेकसुरों को दबा कर मार चुके हैं
अब तो कुछ नहीं हो सकता
शिवाय पछतावे के
क्योंकि ठगिनी का तो उन पर एहसान था....

जान को जान कहा तो...

जान को जान कहा तो 
जान लेने पर उतारू हो गयीं जान
वो नहीं जानती कि उनकी
उलझने खतम हुईं हैं मात्र
वो भी सिर्फ मेरी मर्जी से
उन्होंने समझा कि उन्होंने डरा दिया
पर उन्होंने नहीं समझा
उनकी खुशी में ही मेरी खुशी है
मैं हटा भी तो क्या हुआ
एक बार जान को जान ...कहा तो सही
अपने सच्चे मन की लय में बहा तो सही
अब तो जान ये शरीर बेजान है
ये तो बस अब आत्मा का परिधान है..
पर न ही मैं तंद्रील हूं और न ही लाश
और न ही मैं जीवन से हूं बदहवास
प्रश्न यह भी नहीं कि मुझे क्या चाहिये
न कोई जिज्ञासा आपसे न कोई खरास
प्रश्न है यहां सिर्फ आपकी खुशियों का
जहां भी रहें आप रहें खुश
पूरी हो आपकी हर मुराद...

किसी का दिल दुखाना नहीं सीखा

किसी को मुसीबत में छोड़कर आना नहीं सीखा
अपनी जरुरतों के लिये किसी को पटाना नहीं सीखा
लाख आये मुसीबत सही मेरे जीवन में यार
मैंने किसी का कभी दिल दुखाना नहीं सीखा

रोटी के सवाल पर प्यार

जब मैं फुरसत में था 
प्यार के सवाल पर
वे व्यस्त थीं रोटी के सवाल पर
जब उन्हें प्यार की फिकर हुई
रोटी के सवाल पर अफसोस कि मैं व्यस्त था
साप्ताहिक छुट्टी भी मिली
तो अलग-अलग
एक खुशनुमा दिन जिंदगी का
जब सबकी छुट्टी एक साथ हुई
सोचने में चला गया दिन
न वो मिली न हम मिले
ख्वाब परवान चढ़े
और सच्चाई के धरातल पर
आकर दम तोड़ दिये
शाम को ऩींद खुली, तो मां को भी शुकून में देखा
कि सोया ही सही
बेटा मेरा साथ है तो सही-
पास है तो सही
मैं सोचता रहा कि आज खायेंगे बिरयानी
एक साथ परी-केबिन में
जब नींद खुली तो मोबाइल पर
आया हुआ था एक मैसेज
.......आज रहने देते हैं
फिर कभी ..लूज मोशन है.....
और उनकी कोई बात आसानी से
नहीं माननेवाला मैं पता नहीं क्यों
बड़ी आसानी से मान गया था उनकी यह बात
मुझे पता था कि वह झूठ बोल रही हैं
न उन्होंने मुझे दुख पहुंचाने की कोशिश की
न मेरी औकात पर उठाया सवाल
उन्हें पता था मेरा हाल है बेहाल
पर ऐसा नहीं था कि उनके हाल से मैं नावाकिफ था
मुझे पता था उनकी भी औकात
अपनी परेशानी के साथ ही
उन्होंने भी परेशानी समझी मेरी
अभाव के जंगल में किसी को
प्यार का हक नहीं होता
और अभाव के जंगल में
प्यार नहीं होता.

हमें सही किसने ठहराया कि हम गलत होने से डरें

हम सही थे तो भी गलत 
और गलत तो गलत ही था
हमें सही किसने ठहराया
कि हम गलत होने से डरें

थोड़ी सी खुशियां 
बिटोरने की कोशिश की हमने
वरना दुनिया को क्या पड़ी है
राकेश जिये या मरे.

प्यार तो गूंगे भी करते हैं राकेश

बात से बात निकलती है
बातों से इत्तेफाक क्या
प्यार तो गूंगे भी करते हैं राकेश
वरना बातों में बात क्या

चाहत और पसंद

किसने कहा कि मैं
आपको पसंद करता हूं
पसंद तो बाजार में उपलब्ध 
चीजों को की जाती है

इससे भी आगे कुछ कहने की 
जरूरत है क्या राकेश ?
तो सुन ऐ मेरे हमनशीं
चाहत की कोई पसंद नहीं होती

चाय बेचने का अपराध

गरीबी और तिल-तिल के अभाव से तंग आकर एकबार मैं और मेरा एक दोस्त जिसका नाम सुदेश है, हमदोनों ने आपस में तय किया कि चाय बेचेंगे। चाय बेचने की बात पर चर्चा हमलोग चाय दुकान में ही बैठकर कर रहे थे। चाय बेचने की बात पर चर्चा हुई तो सवाल उठ खड़ा हुआ कि चाय बेचेंगे कहां। फिर हमने निर्णय लिया कि हावड़ा स्टेशन या ब्रिज के आसपास। भगवान ने गरीबी तो दे ही दी उपर से शर्म और संकोच भी दे दिया। कैसा शर्म? कि हम चाय नहीं बेच सकते..अंडा बेचकर कमा नहीं सकते..या फिर फल और तरकारी नहीं बेच सकते। फिर भी हमने बड़ी हिम्मत की। जब हावड़ा स्टेशन के करीब बेचने का निर्णय हो ही गया था तो फिर अब हमारे बीच यह सवाल खड़ा हो गया कि अगर कोई परिचित आ गया तब हम उसे क्या जवाब देंगे। फिर मैंने कहा कि सुदेश यदि तुम्हारा परिचित आ गया तो तुम ये कहना कि मेरा दोस्त है। यहां बैठा हूं चाय पीने के लिये। अर्थात् सुदेश का परिचित अगर आ जाय तो मैं चायवाला बन जाऊंगा और यदि मेरा परिचित आ जाय तो सुदेश चायवाला बन जायेगा। इस बात पर हम दोनों सहमत हो गये। फिर एक घोर समस्या हो गयी। वह क्या? वह यह कि यदि हमदोनों का ही कोई कॉमन परिचित हमारे सामने आ धमका तब क्या करेंगे? हमलोग सोच में पड़ गये। आखिरकार कुछ नहीं सूझा तब हमने निर्णय लिया कि यदि कोई हमारा कॉमन परिचय का व्यक्ति आ जायेगा तो हम हावड़ा स्टेशन के बगल में आखिर क्यों चाय बेच रहे हैं..प्यार से उस व्यक्ति को हावड़ा ब्रिज के करीब ले जायेंगे और उसे उपर से धक्का दे देंगे। न रहेगा और न कहीं जाकर बतायेगा कि हमलोग चाय बेच रहे थे। यह सोचकर हमदोनों को खुब हंसी आ रही थी। एक साधु बाबा स्वामी आत्मप्रकाश हमारे करीब ही बैठे हमारी बातें सुन रहे थे। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं आप उसे क्यों भला ब्रिज से गंगाजी में क्यों फेकेंगे। इसकी जरुरत नहीं पड़ेगी। उन्होंने जो सलाह दी वह भी काबिले तारीफ थी लेकिन फिर हमारी शंकाओं ने उनकी उस सलाह को भी निर्मूल कर दिया। उन्होंने कहा कि जब कोई ऐसा परिचित आ धमकेगा तब आपलोग दोनों अंजान बन जाइयेगा उससे तो बातें कीजिएगा लेकिन जब वो पूछेगा कि आपलोग यहां क्या कर रहे हैं तब आपलोग यह कहिएगा कि चाय के लिये बैठे हैं चायवाला हमें बैठाकर बाथरुम गया हुआ है। फिर जब मैंने स्वामीजी से यह पूछा कि उसी समय कोई आसपास का व्यक्ति उस अतिथि के सामने ही बोल पड़ा कि ऐइ सुदेश दूटो चा दे रे ..बा ऐई राकेश एकटा पारूटी निये आय तब हम क्या करेंगे? अब इसका जवाब स्वामीजी के पास भी नहीं था। अंततः चाय बेचने के अपराध को छुपाने के लिये एक और अपराध करना और फिर उस अपराध को छुपाने के लिये एक और ...और अंततः अपराधों का चेन कहां तक सम्हालते आखिरकार। उससे अच्छा था चाय बेचने का प्रोग्राम कैंसिल और फिर..मैंने हमारे चायवाले नागो चाचा को बोला दूगो चाय दीजिएगा चाचा थोड़ा कड़ा करके बनाईयेगा और हां बिस्कुट भी दीजिएगा।

अस्तित्व...



अस्तित्व
एक बहुत ही अर्थपूर्ण शब्द
शायद यही है
जिसे अब तक 
खोया है मैंने
बीमार विधवा माँ में
दरकते हुए सपनों
.. ...उजाड़...दिशाविहीन
उद्देश्यविहीन....
अंतहीन रास्तों में खोजता
अपनी और माँ की
स्मृति-विस्मृतियों में
पिता के साथ
बिताये गये क्षणों में
टटोलता
कई बार ही हुआ हूं
मैं अस्तित्वविहीन
जब-जब हुआ हूं
... .आहत...!
अस्तित्व का हो जाता है
.....एहसास-
पता चल जाता है
पानी के उस स्तर का
जहां पर मैं
खड़ा हुआ रहता हूं..

अमीर-गरीब

साल्टलेक
जाने के दौरान
उसदिन मुझे 
दस रुपये की सात पेन
महंगी लगी
जिस दिन मेरे पॉकेट में
मात्र दस रुपये ही थे
और किसी खरीददार को
दस-दस रुपये के नौ नोट
गिनकर लौटानेवाला
हॉकर मुझे वास्तव में
अमीर लग रहा था....

मेरी स्मृति

कॉलेज के दिनों में लिखी गई मेरी एक कविताः-



एक सुखद स्मृति..
छा गई है मेरे स्मृति-पटल पर
जो बाध्य करती है मुझे
अपनी छवि बनवाने की
... एक कोरे कागज पर।
चाहती है वह
मेरे स्मृति-पटल से निकल
वाह्यरुप धरने की
उसकी इस चाहत पर
मैं उसे आकंने का
करता हूं कई असफल प्रयास..
पर वह नहीं बनती
इस प्रयास में बन जाती हैं
नवीन आकृतियां
जिन्हें मैं जानता तक नहीं
जिन्हें शायद ही कोई पहचान सके
मैं कूढ़ जाता हूं
जब-जब ही मैं उसे आंकने बैठता हूं
वह या तो लजाती हुई,
या मुझसे ठिठोली करती हुई
मेरे अंतर में ही
विलीन हो जाती है कहीं
कैसे बनाऊं मैं उसे
जब उसे विलुप्त ही हो जाना है
प्रकृति-प्रदत्त हुनर तो पाया नहीं मैंने,
कोई भी चित्र खींच दूं फटाफट
एक चित्रकार की भांति
बहरहाल,
मैं उसे अपनी विस्मृतियों में
ढूंढता रह जाता हूं
अंततः मैं झूंझलाकर फेंक देता हूं
पैंसिल और कागज..
और तब विलीन हुई यही स्मृति..
फिर मेरे सामने खड़ी हो
खिलखिलाती हुई सी प्रतीत होती है
इससे लगता है मुझे चिढ़ाती है वह
लेकिन ओ स्मृति!
तेरी इन उच्छृंखलताओं से
क्या मैं चिढ़ जाऊंगा
तुम्हारा चिढ़ाना और मुझ पर हंसना
शायद मुझे अच्छा लगता है
तभी तो मैंने तय किया है
अब तुम्हारी छवि नहीं बनाऊंगा
अब तो मैं बनाऊंगा
अनजानी, अनसोची, आकृतियां
ताकि कभी इत्तेफाक हो
और उन आकृतियों को बनाते-बनाते
मेरी स्मृति में खेल रही तू
तेरी प्यारी सी छवि बन जाय
और मुझे तुम्हारा वाह्याकार मिल जाय !

धुंआ सा संसार राकेश

धुंआ सा संसार राकेश
धुंआ में कुछ बात!
पिये धुंआ या न पिये 
धुंआ सब बन जात!!

कौन कर्मरत, किसे गर्व अपने कर्म पर!

अनिमेष..
चल रही है रैना 
कभी तो होता है संदेह 
कि घड़ी चलती है
या काल-
या फिर सूर्य कि चंद्रमा
मुझे तो शाश्‍वत..
वर्तमान दीखता है
सुबह उठा..
...वर्तमान...!?
रात हुआ..
वर्तमान
और अभी?
वर्तमान
तुम कहते हो
मैं पंगु हो गया हूं?
कर्महीन, गतिहीन
..निस्तेज पड़ा!
ऐसा कैसे
कह सकते हो तुम?
फिर मेरी यह चमड़ी
बूढ़ाs कैसे रही है?
दृष्टिभ्रम हो गया है
जो तुम्हें चल-अचल
और अचल-चल
महसुस होता है..
अरे भई!
कोई कर्म करे
या न करे
उसका कर्म तो-
हो ही जाता है
उनकी प्रकृति
उनका कर्म कर देती है
पर तुम्हें अपने कर्म करने पर
इतना गर्व क्यों है?
मैंने देखा है-
उस कर्मरत छात्र को-
सुना होगा शायद तुमने भी
जो खुशी से झूमते हुए
लाता है खबर
परीक्षा में पास होने का..
और दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है
सरेआम-सरेराह!
दर्शक देखते हैं
...क्षत-विक्षत शरीर
...और...और..
मुचड़ी हुई
रिजल्ट...!
कितने ही हैं
जिनका जीवन
कट जाता है
खाते कमाते..
कर्मरत तो सभी हैं
अंतर सिर्फ इतने का है
कि-
कोई रोटी कमाता है
कोई सहेजता है
कोई बांटता है
और कोई
रोटी कमाने का नया-नया
तरीका ईजाद करता है
लेकिन ऐसा भी क्या ..
आखिर में तो
प्रकृति द्वारा क्रियान्वित
एक ही कर्म के नेपथ्य में
सभी समा जाते हैं...
सभी को समा जाना है..
क्यों;
हम कर्महीनों को हमारी प्रकृति
अपने कर्म के क्रम में ला खड़ा नहीं कर देती है?
कर्मरत आखिर है कौन?
क्या ये समय
या फिर ये प्रकृति
प्रकृति और समय
समय और प्रकृति..
कहीं ये दोनों ही तो नहीं..
-जो-
पूरे ब्रह्मांड के करोड़ों-करोड़ों
आकाशगंगाओं
एवं अरबों-खरबों पिंडों की
असीम उर्जाओं को समेटे हुए हैं
कहीं ये ही तो नहीं..
जिसमें हर पल बनने
एवं हर पल बिगड़ने की प्रक्रिया
निरंतर हो रही है
तो कर्मरत कौन?
हम, तुम, प्रकृति,
या फिर ये समय-
सतत्! बिल्कुल सतत्!!??

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

मुंशी प्रेमचंद

8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद हमसे दूर हो गये। उनकी पुण्यतिथि पर शायद ही कहीं उनका नाम सुनने को मिला। उनके प्रति उन्हीं के माध्यम से प्रस्तुत इस कविता के मार्फत उनको मेरी श्रद्धांजलि।

मुंशी प्रेमचंद

मुझे याद करने की
कोई आवश्यकता नहीं..
न ही मेरी प्रतिमा पर
एक पुष्प चढ़ाने की जरुरत.
मैं आज भी विद्यमान हूं
अपनी कहानियों में
उपन्यासों में
कुल मिलाकर अपने साहित्य में
आमलोगों के बीच।
मैं विद्यमान हूं अपनी
कहानियों के हर पात्रों के साथ
देहांत को अगर तुम..
मेरी मौत मानते हो
तो यह तुम्हारी भूल है
फिर भी यदि तुम
मुझे मरा हुआ मान ही चुके हो
तो इतना तो जरुर मानते होगे
कि
मेरा साहित्य अभी तक जिंदा है..

........................
..........
होरी मरके भी जिंदा है
वह हर बार जिंदा होता है
और मरकर आंखों में ला देता है आंसू
जिंदा है धनिया
जिंदा है गोबर
घीसू और माधव सभी जिंदा हैं..
पर दुख की बात
इनका संदर्भ
अभी तक खत्म नहीं हुआ है..
यदि मेरे साहित्य ने
तुम्हें कहीं से भी अंदर तक झकझोरा..
तो वही मेरी पूंजी है
और उससे यदि तुममें
किञ्चित भी परिवर्तन आया
तो वही मेरे प्रति तुम्हारी
सच्ची श्रद्धांजलि है
वैसे भी तुम्हें मनाने की जरुरत नहीं है मेरी पुण्यतिथि
यह काम तुम छोड़ दो मेरे उपर
जिस दिन हमारे समाज में
होरी, घीसू और माधव का
फिर जन्म नहीं होगा
उस एकदिन मैं मनाऊंगा
अपनी मौत का जश्न
उस एकदिन मनाऊंगा
मैं अपनी मौत का जश्न।

आपका ---मुंशी प्रेमचंद
---राकेश कुमार श्रीवास्तव