मंगलवार, 5 मार्च 2019

कल्याणेश्वरी

(कहानी)

- मुकुल कुमार सिंह चन्देल

प्रत्येक सभा की तरह आज हम सभी सदस्यों की आलोचना सभा चल रही थी जिसमे पर्वतारोहण से जुड़े विभिन्न विषयों पर आलोचना हो रही थी। हम सभी क्लब के प्रांगण में बैठे चर्चा कर रहे थे। क्लब का प्रांगण कहने का मतलब हमारे वरिष्ठ सदस्य गोपालदा अर्थात गोपालचन्द्र नाग का रॉक जो हमारे क्लब का रुप ले चुका था और उसी में कभी साप्ताहिक कभी पाक्षिक तो कभी मासिक बैठकें हुआ करती थी। वैसे हमारे राज्य पश्चिम बंगाल में ज्यादातर जितने भी पर्वतारोहण क्लब है शायद हीं किसी का अपना भवन हो। यह बड़ी हास्यास्पद स्थिती है क्लबों का पंजीकरण कराना आवश्यक होता है अत: सरकारी नियमानुसार स्थायी ठिकाना होना चाहिए सो किसी सदस्य के घर का पता आवेदन पत्र में लिख दिया जाता है और पत्राचार उसी ठिकाने पर होता है। बस इतना हीं अन्तर है पाड़ा का क्लब और पर्वतारोहण क्लब में। पाड़ा के स्थानिय दस युवक पाड़ा में हीं किसी का घर या जमीन जबरदस्ती दखल कर लेता है जबकि पर्वतारोहण क्लब ऐसा नहीं कर पाते हैं क्योंकि विवेक दीवार बनकर खड़ी हो जाती है।
हाँ तो हमलोग चर्चा में मशगुल थे 40वीं रॉक क्लाइम्बिंग शिविर के विषय में जो दिसम्बर 2010 में आयोजीत होने जा रही थी। रॉक क्लाइम्बिंग पर्वतारोहण का क, ख, ग सिखनेवाला एक वर्ग है जिसमें नये प्रशिक्षुओं का पर्वतारोहण से परिचय कराया जाता है। अत: यह अति महत्वपूर्ण होता है। यह वर्ग आनेवाले कल के पर्वतारोही का बुनियाद तैयार करता है। हमलोगों का यह शिविर पुरुलिया जिले के जयचण्डी पहाड़ी क्षेत्र  में आयोजित की जाती है और इसकी सफलता के लिए कुछ कागजी कार्य पुरे करने होते हैं जैसे जिला प्रशासन, वन दफ्तर, नजदिकी पुलिस थाना, पौरसभा एवं स्थानिय ग्रामवासियों का सहयोग आदि से सम्पर्क स्थापित करना। बीना इनकी सहायता के शिविर की सफलता संभव हीं नहीं है। सो इन कार्यों को करने के लिए ऐसे सदस्यों को भेजा जाता है जिनका स्थानिय स्तर पर लोगों से जान-पहचान हो क्योंकि वर्तमान राजनैतिक जटिलता नये लोगों के लिए परेशानी का विषय बन जाती है। वैसे यह क्षेत्र अभी राज्य सरकार एवं स्थानिय विक्षुब्ध नागरिकों का द्वन्द स्थल बना हुआ है। इसी विषय पर बहस हो रही थी कि किसे भेजा जाय? अन्त तय हुआ हम तीन यानी मैं, विश्वनाथ सेन या कहे सेनदा तथा नविन अग्रवाल को जाना होगा। अगले हीं सप्ताह अर्थात अक्तूबर के दूसरे सप्ताह का शनिवार हावड़ा से रात को 10.55 पर छूटनेवाली आद्रा चक्रधरपुर पैसेन्जर से जयचण्ड़ी के लिए प्रस्थान करेंगे।
निश्चित दिन को शाम साढ़े छ: बजे मैं अपने घर से एक हल्का सा बैग जिसमें तौलिया, मंजन-ब्रश, एक हल्की सी चादर तथा क्लब के आवश्यक कागज-पत्र रख नैहाटी रेल्वे जंक्शन पहुँच गया। हावड़ा के लिए टिकट खरीद प्लेटफार्म पहुँचा, बैण्डेल लोकल खड़ी थी शायद उसे मेरा हीं इन्तजार हो। मैंने उसमे कदम रखा और वह हर्न देते हुए प्लेटफार्म को मैं चली-मैं चली कह दी। पाँच मिनट बाद हीं अपनी दूरी को मापते हुए हुगली नदी के वक्षस्थल पर अंग्रेजी साम्राज्य के शान 1885 में निर्मित जुबिली ब्रिज से प्यार का इजहार करती हुई आगे बढ़ गई। इस ब्रीज को लोग प्यार से हुगली ब्रिज कहकर गर्व का अनुभव करते हैं। इस लोकल ट्रेन का मैका आ गई इसलिये इसने अपना घुंघट हटा दी और चढ़ने-उतरनेवालो के रेले में मुझे शामिल कर दी। यही कोई बीस मिनट बाद 7.35 पर हीं डाउन ट्रेन थी पर मुझे तो कोई जल्दी थी नहीं सो मैं 7.55 मिनट पर छुटनेवाली डाउन लोकल बैण्डेल-हावड़ा थी उसमे एकदम पहली बोगी में सवार हो अपना स्थान ग्रहण किया। धीरे-धीरे बोगी का वजन बढ़ता जा रहा था और उसके साथ हीं साथ ध्वनि प्रदूषण भी। ज्यादातर यात्री हावड़ा से दूरगामी ट्रेन पकड़नेवालों की थी। वैसे यात्रियों की संख्या कम लॉगेजों की संख्या देखकर अजब लग रहा था कारण मैं सोचने को बाध्य हुआ कि भारतीय रेल क्या कभी सवारी रेल बनेगी भी या सदैव मालगाड़ी हीं बनकर रह जायेगी। प्राय: सभी यात्री जैसे किसी प्रदर्शनी में स्वयं को प्रदर्शीत करने जा रहे रहे हों क्योंकि जब वे लोग बोगी में कदम रखे हीं थे तो मानव स्वभावानुसार मेरी नजर उनपर पड़ी तो देखा की जितने सारे कपड़े व जूते-चप्पलें खरीदी है, सारे के सारे पहन लिए हों और औरतों की बातें हीं अलग थी असली-नकली गहनों से लदी क्रीम-पाउडर तथा लिपस्टिक तो होठों से चू पड़ने को बेताब थी। गहनों की पहचान करना मुश्किल परन्तु इन्हे देखकर डाके पड़ना, छिनताई की घटनायें तो सरेआम हो रही है और दोष प्रशासन के उपर मढ़ देना आम बात हो गई है। यदि जनता-जनार्दन जिन कार्यों को करने से अपराध को बढ़ावा मिलता है उसपर स्वयं हीं नियंत्रण करें तो मुझे लगता है अपराधिक प्रवृतियों पर अंकुश अवश्य लगेगी। जनरल बोगी में सीट पाने के लिए यात्रियों का व्यवहार और शब्दों का प्रयोग सभी को शर्मिन्दा करता है पर कुछ पल के लिए फिर सब सामान्य। बाद में यात्रीगण सीट पाने के लिए जो छिना-झपटी किये थे वह सब उनके मुखरविन्द से शान के रुप में वर्णन होता है। इन्ही सबके बीचबोगी के अन्दर फेरीवालों की रेलम-पेल तथा बेसुरी गीत सुनाई देने लगी “ऐ चा....ह, बादाम.....बादाम भाजा, पापोड़.....चालेर पापड़, दस टाकाय बैग...बैग चाय, मोजा....मो....जा, चायनीज बाम आ गया आपके सारे दरदों को भगानेवाला बाम....बस चुटकी लगाते हीं चोट लगे स्थान पर लगाईये- फौरन आराम पाईए दादा” इत्यादि-इत्यादि। लग रहा था विश्व के सारे फेरीवालों का ऑलम्पिक एक हीं बोगी में आयोजीत होनेवाली हो और इनके साथ कदम से कदम मिलाकर ईंजन की घर्र-घर्र सुनाई दे रहा था। कुल मिलाकर रेल्वे की बोगी कम अजूबाखाना बन मुझे भी अपने सिने से लगाए हुए थी। हाँ एक बात और भी अनुभव हुआ कि सारे यात्रियों का परिचय व्यक्तिगत रुप से भले हीं अलग-अलग हो पर गंतव्य सबका एक है अर्थात उतर जाना है। कोई भी इस ट्रेन से चिपका नहीं रहेगा। पता नहीं यह कैसा तार है जो सबको एक-दूसरे से जुड़े रहने को बाध्य करके रखा है और संभव हो यही तार इस देश को भी एक सुत्र में पिरोकर रखा है। तभी तो आर्यों की पावन भूमि हिमालय से हिन्दमहासागर तथा पैगोडा से झेलम तक आधूनिक युग में भी प्रसांगिक है। वैसे अत्यधिक उँची-उँची लहरों के थपेड़ों से टकरा-टकराकर देशीय तटबन्ध टूट गये हैं, खण्डित होकर हमें चिढ़ा रही है। शायद हममें पुर्वजों की भाँति हमारा पुरुषार्थ जागे और हमारे बीच में पुन: कोई सर्वदमन(शकुन्तला-दुष्यन्त पुत्र राजा भरत) नामक चक्रवर्ती सम्राट बने और इस टूटती हुई भूमि को अखण्डित आर्यावर्त बनाये।
समय तो रुकती नहीं है। अचानक लोकल ट्रेन में हड़बड़ी मच गई। बोगी के दरवाजे पर ठेलाठेली, एक-दूसरे को रौंद डालने की तत्परता, हॉर्न सुनाई दी और लोकल ट्रेन एक-दो-तीन-चार। बैण्डेल जंक्शन हमसे रूठ गई पर इसकी परवाह कौन करता है।
थोड़ी सी तन्द्रा आ गई थी। मैंने पुश्तगाह से सर टिकाए पलकें बन्द किया पर नींद नहीं आई लेकिन शरीर को ढीला छोड़ दिया। जब भी किसी स्टेश्न पर ट्रेन रुकती तो मैं अपनी पलकें खोल दरवाजे की ओर निहारता। यात्रीगण यंत्रवत किसी को भी रौंदते-कुचलते हुए उतर-चढ़ रहे थे। उनके चढ़ने-उतरने से किसी अन्य यात्री को भले हीं चोट लग गई हो क्या फर्क पड़ता है, उन्हे तो सिर्फ अपनी चिन्ता है। उपर से कुछ यात्री अकारण हीं दरवाजे पर भीड़ लगा रखे थे। पता नहीं कौन सा सुख उन्हे मिल रहा था? शायद किसी की जेबें हल्का कर रहें हो या चढ़ना-उतरनेवाली महीला यात्रियों के शरीर का स्पर्शानन्द। कुछ युवा(लड़के-लड़कियाँ)तो इतने हीं स्मार्ट बन अपने को सिनेमा नायक-नायिका बन दार्शनिक की भाँति फुसफुसाहटों में थोड़ा वाचालपन दिखने या किसी परिचित की नजरों में न पड़े इसलिए सारा भीड़ दरवाजा पर जबकि बोगी के अन्दर बिलकुल ढीलाढाला एवं साँस लेने लायक भी। यदि किसी ने साहस कर कह दिया कि  “दरवाजे पर क्यों खड़े हो? अन्दर तो एकदम खाली है।“बस यही न गड़बड़ हो गई। दो रंग में जबाब मिला-दादा, एक-दो स्टॉपेज के बाद हीं उतरुँगा(विनयपूर्वक)और दूसरा दाल का छौंक “ क्यों खड़े हैं, यह आप पूछनेवाले होते कौन हो? और फिर आपको कोई असुविधा नहीं न हो रही है, तो कलेजा किसलिए फट रहा है। जाओ कुछ करना है कर सकते हो।“ उल्लू कहीं के। इन वाक्यों को हर कोई सुनता है पर किसी में कोई प्रतिक्रिया नहीं। सारे यात्री इन वीरों के मुखमण्डल को निहारते हीं रहे। बड़ा हीं विचित्र व्यवस्था है। प्रत्येक स्टेश्न पर ऐसे हीं नाटक का मंचन होता चला। एक-एक करके सभी उपनगरीय स्टेश्नों को पीछे छोड़ते 8.55 मिनट पर मैं अपने सहयात्रियों के साथ हावड़ा जंक्श्न पहुँचा। प्लेटफार्म पर रात के समय भी नराकार रेला का ढेउ इतना उँचा उठा कि अपना किनारा ढुंढना मुश्किल हो गया था। इसी ढेउ अर्थात लहर का एक छोटा सा कण बनकर बहते-बहते हावड़ा बड़ी घड़ी के निचे जा लगा। बैठने का कोई प्रश्न हीं नहीं था। सारी सीटें अटी पड़ी थी और अपने-अपने गंतव्यस्थल की ओर जानेवाली ट्रेनों का बड़े धैर्य के साथ इन्तजार कर रहे थे। सबके कान रह-रहकर गुंजायमान घोषणाओं पर केन्द्रित था पर ध्यान में चंचलता, आँखे न थमनेवाली नृत्य में व्यस्त। पुरा शरीर आलस्य से परिपूर्ण, बड़ी-बड़ी जम्हाईयाँ आ रही थी। जो लोग सीटों पर बैठे थे अपने को भाग्यशाली समझ इठला रहे थे तथा बाकी में से कुछ फर्श पर कागज बिछाकर बैठे या लेटे हुए तो कुछ रेलिंगो से पीठ टिकाए खड़े-खड़े टांगो पर ज्यादती कर रहे थे। जिसे जहाँ ठाँई मिला वहीं अपना बाजार फैला लिया। कोई अपना बाजार समेट रहा था तो कोई फैला रहा था और इन सबके बीच एक विशेष वर्ग के यात्री सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर आनन्द प्रदान कर रहा था एवं अपने संरक्षकों को परेशान करके डगमग-डगमग इधर-उधर भागते नजर आते हैं क्योंकि ये महानुभाव नया-नया चलना सिखें हैं। अपना-पराया का ज्ञान नहीं है, उसे तो बस चलने में मजा आ रहा है, कभी गिर पड़ता है और गिरकर सम्हलता है एवं उठ खड़ा होता है। किसी के संरक्षक पकड़ने का प्रयास भी कर रहा है पर जैसे हीं पकड़ ढीली हुई की बस फिर आगे बढ़ गये, किलकारियाँ भरते हुए जिसके-तिसके पास चला जाता है, सबको आनन्द प्रदान कर रहा है। ईश्वर कहो या प्रकृति की अनुकम्पा इनके लिए कोई भी मानव सृजीत बाधा धरी की धरी रह जाती है। जो भी हो एक पल के लिए हीं सही हर कोई इन्हे स्पर्श कर एक स्वर्गीय सुख का अनुभव तो अवश्य करता होगा। सबसे अधिक गर्व तो इनकी माताओं को होता होगा जिन्होने इन्हे धारण किया है। इस विश्व में विरला हीं कोई होगा जो इस प्रकृति के सृष्टि के सामने अपने को भूल नहीं जाता हो। तभी तो संत सूरदासजी भगवान कृष्ण के बाल सुलभ लीलाओं को देवताओँ के लिये भी अलभ्य बताया है।
हावड़ा जंक्शन के विषय में तो लिखने के लिए वैसा शब्द हीं कहाँ है मेरे पास। मुझे तो यह मेले सा लगा जहाँ लोग अपने-अपने गंतव्य को पाने के लिए आते हैं और कुछ पल का सरगम सजा चले जाते हैं तत्पश्चात सब कुछ सामान्य। आश्चर्य होता है हावड़ा के वक्षस्थल पर जहाँ मनुष्य सदैव मृग-मरिचिका पकड़ने के चक्कर में अनगिनत स्वांग रचता है पर यह जंक्शन किसी को पकड़कर नहीं रखता है। लगता है कामदेव के तुणिर से निकला हुआ वाण पथभ्रष्ट होकर अन्य दिशा में चला गया होगा। इस हावड़ा पर कोई हमेशा के लिए अधिकार नहीं रख पाया। अधिकार करनेवाला आता हीं रहेगा और आ कर चला जायेगा। परन्तु यह भविष्य को हमेशा ललचायेगा, अपने पाश में फँसाकर कहेगा “ओ मनुष्य, अपने को पहचानो। जानते हो मैं हीं मैं हूं, तुम नहीं।“
बड़ी घड़ी के वहाँ से मेरी नजर जहाँ तक जा पाई वहाँ तक वैद्युतिन प्रकाश की चकाचौंध तथा विभिन्न प्रकार के यंन्त्रों की घर्र-घर्र ध्वनि के बीच संवेदनाहीन घोषणा यात्रियों में हड़कम्प मचा दे रही थी जिससे सबमें केवल मेरा और मुझे की भाव को जगाती थी। औरों के बारे में कोई नहीं सोचता है।
अचानक मेरी छठी इन्द्रीय ने मेरी बाँह पकड़ ली और मुझससे पूछा –मेरे साथ चलनेवाले कहाँ है? अभी तक आये नहीं। सचेतन हो जेब से दूराभाष निकाली एवं सम्पर्क साधा, दूसरी तरफ से सेनदा का जबाब आया कि वे  लोग रिसड़ा स्टेश्न पर हीं फँसे हैं। जगधात्री ठाकुर का विसर्जन प्रोसेशन निकला है जिससे रेलसेवा प्रभावित हुइ है। बस जैसे हीं ट्रेन का आवागमन शुरु हुआ की पहुँचे, एकदम निश्चिन्त रहो। और मेरी दूराभाष गुंगी-बहरी हो गई। उधर घोषक यंत्र लगा बेसुरा गीत गाने, यात्रीगण ध्यान दे डाउन ट्रेन सेवा बाधीत होने के कारण अप सेवायें विलम्ब हो रही है......धन्यवाद। ये तो रेल का कर्तव्य है यात्री को सूचना देना सो वह कर रही है पर उनलोगों की साँसे उपर-निचे होने लगी, बचैनी बढ़ गई जिनका घर ऐसे स्थानों पर है जहाँ गये रात कोई साधन हीं नहीं मिलेगी तथा मालुम नहीं रेलवे सुरक्षाकर्मी स्टेशन परिसर में रात कटाने भी देंगे या नहीं। सभी लोग सशंकित हो उठे- पता नहीं आज कितने लोग टिकटचेकरों के हाथों या पुलिसबलों के हाथों हलाल कर दिये जायेंगे क्योंकि ये सरकारी वर्ग रात को कहीं ज्यादा हीं कर्तव्यपरायण हो उठते हैं और निरीह जनता कानून के अवहेलनाकारी। इन लोमड़ियों को तो बत्तख का शिकार कर रक्त पीना है सो भेड़िये मेमने की कहानी को दोहरायेंगे हीं। अचानक मेरे मन में एक बात बिजली की भाँति कौंध गई कि यदि डाउन ट्रेनों की सेवायें रद्द कर दी गई तो मेरा क्या होगा! कारण सेन और नविन दोनों यहाँ तो पहुँच पायेंगे नहीं फिर मेरे पास आद्रा जानेवाली ट्रेन का टिकट भी नहीं है। अत: मेरा ग्रह आज बिगड़नेवाला है। यदि प्लेटफार्म टिकट खरीद भी लूं तो उसपर मात्र दो घंटे की छूट। फिर पता नहीं किसी गणतंत्र के सेवक की शनि-दृष्टि मुझ पर पड़ गई और अन्दर करने का डर दिखा दान-दक्षिणा देने को कह दे। असमर्थता व्यक्त करने पर अगले दिन समाचार पत्रों में मेरी फोटो अस्त्र-शस्त्र के साथ छपेगी जिसका शिर्षक रहेगा पुलिस की सफलता, आतंकवादी गिरफ्तार। नहीं-नहीं यह मजाक नहीं है, एकदम सत्य। इसी हावड़ा जंक्शन पर एकबार मैंने मुम्बई जाने के लिए गीतांजली एक्सप्रेस में अपना आरक्षण करवाया था। नैहाटी से हावड़ा भाया बैण्डेल का टिकट भी साथ, गीतांजली किस प्लेटफार्म पर आयेगी जानने के लिए अनुसंधान केन्द्र की ओर जा रहा था और गणतंत्र के सेवक चेकरमहाशय ने मुझे रोका, मैंने टिकट दिखाया। पर जानते हो क्या हुआ! मुझसे कहा गया कि मैं डाउन एक्सप्रेस ट्रेन से आया हूं सो फाईन देना हीं पड़ेगा अन्यथा ऑफिस चलो। लाख समझाया पर उनके आगे मैं बीन बजाता रह गया और वे मुझे 13 न. प्लेटफार्म पर ले गये जहाँ उन्ही के सजातिय चेकर बंधु रेलवे सुरक्षाबलों के साथ गणतंत्र की सेवा करने को तैयार। इधर गीतांजली छूटने का समय हो चला था एवं मेरी परेशानी बढ़ने लगी। फिर भी मैं यथाशक्ति इनसे लड़ने का प्रयास किया परन्तु जब तक इन रक्त पिपासुओं का पेट न भरे भला कैसे छोड़ देंगे? अंत में मैंने इनके कहे गये सौ झूठ को स्वीकार कर लिया विनिमय में चेकरों के दल ने मुझे दो सौ इक्यावन रुपये का रसीद थमाया तथा मुझे मुक्ती प्रदान की। किसी तरह उनके पंजे से छूटते हीं मुझे भागना पड़ा क्योंकि केवल ट्रेन छुटने में मात्र पाँच मिनट से भी कम समय था। आज भी मुझे उनके कहे गये शब्द याद आ हीं जाते हैं “अच्छों-अच्छों की हमने पजामे ढीली कर दी है,आप पता नहीं किस चिड़ियाखाना से आये हो। ये लो मेरा सर्विस न. जो मन में आये कर सकते हो। कोर्ट का डर दिखाता है।“
इतना याद आना था की मेरा प्रेशर बढ़ने लगा। मन हीं मन सोचने लगा कि चोर-लूटेरों के हाथ भले पड़ जाउं पर इन गणतंत्र के सेवकों के हत्थे न पड़ूं क्योंकि शायद इन्हे प्रशिक्षण हीं ऐसा मिला हो कि यदि किसी को झूठा साबित करना हो तो सौ बार झूठा बोलो, सामनेवाला हारकर उस झूठ को स्वीकार कर लेगा।
मेरी दुश्चिंता बढ़ती जा रही थी। हावड़ा जंक्शन की गहमा-गहमी अब मुझे चिढ़ा रही थी, जैसे मैं याँ सबसे बड़ा मूर्ख हूं तथा यहाँ उपस्थित सभी लोग मुझे देखकर हँस रहे हैं। अत: पुरे परिसर में मैं इधर-ऊधर भटकने लगा। सेन-नविन से बार-बार मोबाईल पर सम्पर्क करने की कोशीश कर रहा था पर असफलता हाथ आ रही थी। बड़ी अजीब बात है ऐसे समय मे शरीर भी बेजान व बोझ लगने लगा, कदम शक्तिहीन हो इधर-उधर पड़ रहे थे। खैर उबाउ समय को मुझ पर दया आ गई और संवेदनाहीन यंत्र की चिकनी-चुपड़ी ध्वनि सुनाई दी-कृप्या ध्यान दें। यात्रीगण से अनुरोध किया जाता है कि 315 अप आद्राचक्रधरपुर फास्ट पैसेन्जर अपने निर्धारित समय से आधा घंटा विलंब से 19 न. प्लेटफार्म से छूटेगी....धन्यवाद। यह सुनकर मैं अधिर हो उठा। मैं क्या करूं क्या न करूं, मेरे पास तो टिकट भी नहीं है। अन्त में साहस बटोरकर 19 न. प्लेटफार्म की ओर कदमों को गति दी। अचानक मेरी दूराभाष ने अपनी कर्णप्रिय संगीत के सुर छेड़ दी। अनमने ढंग से उसे बाहर निकाला, देखा कि सेनदा है-“19 न. प्लेटफार्म पर पहुंचो, हमदोनो वहीं आ रहे हैं।“ इतना सुनना था कि मैं नई ताजगी से भर उठा और दोगुने जोश के साथ भीड़ को ठेलते धक्का-मुक्की करते 19 न. पर पहुंचा तो देखा की हमारी ट्रेन इतराती-नखरे पर नखरे दिखाती आ रही है और सभी यात्री अपने सामानों के साथ बड़ी व्यग्रता से उसमे समाने को तैयार है। मैं चौकन्ना होकर इधर-उधर अपनी गर्दन को घुमा रहा था क्योंकि मैं भी बेचैन था। प्लेटफार्म पर ट्रेन आ लगी, बोगियों के दरवाजे अन्दर से बन्द। लेकिन यात्रियों को सब्र कहाँ था, कुछ-कुछ यात्री हैण्डलों को घुमाकर खोलने का प्रयास करने लगे। इतने में हीं एक कर्मचारी अपने हाथों में यात्री तालिका गोंद सहित दरवाजे के दाहिने तरफ फटाफट चिपकाता चला गया। दूसरे हीं क्षण खुल जा सिम-सिम। पुन: यात्रियों की पहले मैं-पहले मैं शुरु। पक्के स्वार्थी बन जाते हैं। इन्हे देखकर किसी भी कोने से सहयोगी का प्रमाण नहीं मिलता है। लगता है जैसे बोगी को कहीं कोई लूट ले उससे पूर्व हीं बोगी में समा जाय।
थोड़ी हीं दूरी पर सेनदा को मदमस्त हाथी की तरह आते हुए देखा। उसने आते हीं कहा-जानते हो, हमलोगों को तुम्हारी हीं चिन्ता थी कि तुम क्या करोगे। उनका यह प्रशन सुनकर एकबारगी तो मैं चौंका पर अगले हीं पल सहज हो पुछा- क्यों मेरे प्रति ऐसी भावना क्यों आई और फिर नविन कहाँ है वह नहीं दिख रहा है? उत्तर मिला-वह हमलोगोँ के लिए डिनर की व्यवस्थाकरने गया है। खैर छोड़ो, चलो हमलोग अन्दर अपना सीट देखते हैं। हमारी सीटें दरवाजे के पास आरक्षित थी जहाँ यात्रियों की संख्या आठ एवं शायिकाओं की व्यवस्था बड़े गजब की थी। मेरा बर्थ एकदम निचे तथा बीच में महीला यात्री एवं उपर अन्य पुरुष यात्री और दूसरी तरफ बाँयी ओर निचली बर्थ सेनदा की एवं बीच का व उपरवाला दो महीला यात्री तथा दरवाजे से सटा हुआ निचली शायिका नविन की, बाकी के दो पर महीलायात्री। मजेदार बात यह थी की हमलोगों के पास हल्के सामान के रुप में एक-एक रुकसैक जबकि हमारे महीला यात्रियों के सामानों से सारी शायिकाएं हीं दखल कर ली गई थी। वहीं नविन की शायिका पर महीलाय़ात्री भोजन हेतु आसन जमाए बैठी थी। मैं उसी पर अपना सैक पीठ से उतार कर अभी रखा हीं था कि सहयात्री दल मौचाक के मधुमक्खियों की भाँति मुझ पर ऐसे  टूट पड़ी जैसे मैं जानबूझकर उन्हे देखकर हीं वहाँ बैठने गया था। मैं भौचक्क रह गया उनके व्यवहार पर हमारा हीं सीट और हमारे उपर हीं आँखें तरेरो। वह तो सेनदा थे जिन्होने बड़ी हीं कुशलता के साथ उन मधुमक्खियों को सम्हाला। तब तक नविन भी आ गया, पलभर के लिए घटित हो रही घटना का पर्यवेक्षण किया तत्पश्चात महिला यात्रियों से कहा-आपलोग पहले इस बर्थ को खाली करो नहीं तो मेरे जिस मित्र को आपलोग फजीहत कर रही हैं न वह जरा मोटे माथा का है, एकबार उसे कह दूं ना कि इनका सामान बाहर फेंक दो तो वह आपके सामानों सहित आपको भी बाहर फेंक देगा और बाकी का सारा काम हम दोनो कर देंगे। इस पर एक ने कहा कि यह तो गुण्डागर्दी है, कोई है जरा पुलिस को बुलाना। नबिन भी कम नहीं गया। उसने कहा-अरे आप उतरेंगी भी या बकवास करती रहेंगी। फिर मुझे इशारे कर कहा-अब तुम अपना काम करो। मुझे नविन का नाटक समझ में आ चुका था और मन हीं मन हँसा, सो उस नाटक में प्राण डालने के लिए उनलोगों का एक छोटा बैग सचमुच में फेंक दिया।
-अरे-रे-रे, क्या कर रहे हैं आप?
-वही कर रहा हूं जो आपको चाहिए। एक तो मेरे बर्थ पर आपलोगों ने बाजार फैला लिया है और उपर से मुझे बेइमान चरित्रवाला कहा।
उधर सेनदा भी अपनी बीचवाली बर्थ को उठाने के लिए उनके सामानों को इधर-उधर हटाना शुरु किया हीं था कि महीलाओं में से जो पुरुष सहयात्री था बड़ी हीं शालीनता के साथ अनुरोधपूर्वक कहा- दादा, थोड़ा रात का भोजन कर लेने देते तो बड़ी कृपा होती। सेनदा संग हीं संग नहले पर दहला मारा-बस आ गये ना रास्ते पर, ये बात तो पहले कहना चाहिए था। ये लड़कियाँ आपके परिवार की हीं है और नारी शक्ती का प्रदर्शन कर मेरे मित्र को अपमानित कर रही थी, उस समय आप कहाँ थे श्रीमान? मजा देख रहे थे! वो तो इनकी उदारता है जो इन्होने कुछ कहा नहीं।
-ठीक है दादा। इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं और ये लड़कियाँ आपकी पुत्री के समान है।
-ठीक है सेनदा जाने दो। इनकी तरह मेरी भी बेटी है। पहले हमलोग भी पेटपूजा कर ले फिर देखा जायेगा।
मैंने उस सहयात्री को अभयदान दे दिया और मामला शांत हो गया। नविन की शायिका पर डिनर के उपादान रख हम तीनो बैठ गये। सेनदा सबसे पहले थम्स अप की दो बोतले निकाली, एक का ढक्कन खोला और अपना गले में ढकेला तथा बाकी मेरी ओर बढ़ा दिया। बोतल एकदम ठण्ढी थी जैसे अभी-अभी फ्रिज से निकाला गया हो और मैंने उसे अपने मुखविवर में उड़ेल दिया, थोड़ी झाँझ जो मेरे आहारनाल को जलजलाते हुए उदर में उतर गई एवं अगले हीं क्षण ऐसा जोर का डकार आया कि मेरी नासाछिद्र को होश आ गया। इसी होशों के अन्तराल मे बोगी के अन्दर के दृश्य का अवलोकन किया जहाँ एक प्रकार की गहमागहमी छाई हुई थी। प्रत्येक कूपों में चिड़ियों के समान यात्री कलरव कर रहे थे। कोई-कोई तो इन्ही चन्द लम्हों में नाक बजाने लगे अर्थात ट्रेन कब छूटेगी इसकी चिन्ता नहीं या ऐसा भी कहा जा सकता है कि ये लोग जरा स्वार्थी स्वभाव के होंगे। अचानक बोगी के अन्दर हल्की कम्पन हुई तथा दरवाजे से लोगों को हड़बड़ी में अन्दर प्रवेश करते देख खिड़की से बाहर देखा तो पाया कि हमारी ट्रेन प्लेटफार्म को विदा कर रही थी। बाहर खड़े लोग पिछे छूटते जा रहे थे और बाहरी चहल-पहल पर ताला लगती जा रही थी। अन्दर के कूपों में एकबारगी तुफान तो आया पर शक्तिहीन होने में ज्यादा समय नहीं लगा। प्रत्येक कूपों की बत्तियाँ बूझती जा रही थी। बोगी के कम्पन में स्वपनील निद्रा का आवाहन था जिसके आँचल में एक-एक कर सभी समाते जा रहे थे। हमलोग भी रात्रीभोज को समाप्त करने के प्रयास में थे पर गर्म-गर्म रोटियाँ और  मसालों में भूंजे हुए मुर्गी का मांस चटकारे ले-लेकर रसास्वादन करते हुए आनन्द की प्राप्ति कर रहे थे। खैर हमारी भोजन की पैकेट खाली और उसके साथ रेल नीर व थम्स-अप की बोतलें भी।
उधर हमारे सहयात्री हमलोगों से पहले हीं भोजन समाप्त कर बैठे थे शायद कुछ कहना चाह रहे थे। अंत में लड़कियों ने हीं मुँह खोला- काका, कह रही थी कि यदि अपलोग एक हीं तरफ की शायिकाओं पर सो जाते तो हमलोगों को सुविधा होती। मैंने बीना हिचक के कहा-देखते हैं क्या किया जाय और कुछ पल के लिए हम तीनों एक-दूसरे का मुँह देखते रहे। सेनदा ने उनसे कहा-ठीक है, मैं एकदम उपरी शायिका पर तथा मेरे ये दोनो बंधु एक तरफ उपर-निचे सो जाते हैं और आपलोग अपने परिवार के साथ निश्चिंत रहो।
-ओ अंकलजी आपलोग कितने अच्छे हैं। दोनो लड़कियाँ खुश होकर बोली।
-अभी थोड़ी देर पहले अप माँ-बेटी मिलकर मुझे काट खाने को तैयार थी, अभी कह रही हो हमलोग बहुत अच्छे हैं.....मैंने हँसते हुए कहा।
-अंकल वी आर एक्सटर्मली सॉरी।
-ऐ बेटीलोग हमलोगों को अंग्रेजी नहीं आती। सेनदा ने कहा और इसपर हम सभी हँस पड़े।
-तब भाई,जब जैसा तब तैसा नहीं तो मरद कैसा । नविन इस वाक्य को कहकर मेरे कन्धे थपथपाये और हम सभी अपनी-अपनी शायिकाओं पर हाथ-पैर पसारकर लेट गये। ट्रेन तो रफ्तार पकड़ हीं चुकी थी। बिल्कुल पालकी की भाँति अपने यात्रियों को मातृ-स्नेह देते सुलाने का प्रयास कर रही थी। मैं भी इस स्नेह का स्पर्श पाकर सुख का अनुभव कर रहा था। स्नेह का स्पर्श जहाँ होता है वहीं सुखों की दुनिया बसती है। किसी भी प्रकार का तनाव कहें या अवसाद पास फटक नहीं पाती है। मैं तन्द्रा से जूझता हुआ पलकों को खोले रखने की मिथ्या प्रयास कर रहा था ताकि मेरे मानस पटल पर उभरनेवाले मानव स्वभाव के प्रत्येक बिन्दुओं को पढ़ लेना चाहता था, जैसे ये बिन्दु मुझसे कुछ कहना चाहता था। धड़-धड़-धड़,झक-झक-झक की ध्वनि और बोगी की दोदुल्यमान स्थिती में खोता चला गया। जब वहाँ से वापस मैं आया तो देखा की नई लालिमायुक्त गगनमण्डल के शांत वातावरण को चिरती हुई हमारी ट्रेन प्रात: की तरुणाई से एकाकार हो रही है। बोगी के अन्दर अभी भी विद्युत प्रकाश अपनी छटा बिखेर रहा था पर दुर्बल हो चुका था। प्रत्येक कूपे के अन्दर अमन-चैन का साम्राज्य था, इक्के-दुक्के यात्री प्रसाधन कक्ष की तरफ आना-जाना कर रहे थे। मैं निश्चित हुआ कि सबेरा हो चुका है तथा मुझे भी हल्का हो लेना उचित लगा।
हमारी यह ट्रेन आधा घंटा विलंब तो हावड़ा में पहले हीं रजिस्ट्रेशन कर चुकी थी। फिर इण्डियन लोकतंत्र की ट्रेन सही समय पर भला कैसे करेगी? अभी हिचकोले खिला रही है, कभी गति कम –कभी बढ़ाकर इठला रही थी। अपनी सीट पर बैठे उन दृश्यों को देखने लगा जो दौड़ते हुए पास आकर पलकें झपकने नहीं देती है और झट से छुप जाती है। ऐसे सुन्दर दृश्यों की झाँकि बड़ी प्यारी लगती है। वैसे सच में कहा जाय तो मैं भी अपने को इस नैसर्गिक सुख से वंचित नहीं रखना चाहता और इतना हीं नहीं जब-तक मेरी पड़ाव नहीं आ जाती तब-तक इस सागर से निकलने की इच्छा नहीं है। बंधुगण, दिवस की यौवन में दौड़ती हुई ट्रेन की बोगी के अन्दर से बाहरी सुन्दर दृश्य अवश्य पास आते हैं पर वह मादकता की चादर ओढ़े शहद की तरह मीठी नहीं, पनसोर होता है। भोर की बेला में शैशव निश्छल् तथा सारे अवसादों को धोनेवाली होती है। इन सबके बीच ऐ चा...य, चा..कॉफी शब्द भी अमृत के समान प्रातकालिन शैशव की किलकारियों को एक मधुर छन्द में पिरो डाला। सेनदा पता नहीं कब उठकर दरवाजे पर आकर खड़े मेरी हीं तरह किसी सुखसागर में डुबकी लगा रहे थे इसका मुझे ख्याल नहीं था। वह तो चायवाले का चाय बढ़ाता हुआ हाथ ने मुझसे किनारों को भी देखने का आग्रह किया और मैंने उसके हाथ से चाय का गिलास ले लिया तथा उसमें चाय पत्ती से भरी एक छोटी सी थैली को गिलास में हीं डूबोया तो चाय की रंग चढ़ी तथा चाय की गंध और गरम-गरम भाप का स्पर्श बड़ा सुखद लगा। भोर के दृश्य का इठलाना, चा......य, कॉ....फी शब्द गुंजन तथा चाय का गंध एवं गिलास से उठनेवाली भाप का स्पर्श सब मिलकर आनन्दसागर के प्रवाह में एक हो चुके थे। कोई अन्तर नहीं था और इस अमृतधारा के साथ ट्रेन का सत्त उद्देश्य (सभी यात्रियों को उसके पड़ाव तक पहुँचाना) का मिलकर एकात्म हो जाना,महज साहित्यिक कल्पना नहीं बल्कि सत्य की निश्चयता है। जिसमें कोई भेदभाव नहीं है।
नविन भी जाग चुका था और हम अभी भी लगभग आधा घंटे या पौन घंटे की दूरी पर थे एवं नविन की शायिका पर बैठे बेसब्री से अंतिम मंजिल का इन्तजार कर रहे थे। धिरे-धिरे सुबह जाग चुकी थी इसलिए खिड़की के काँच को थोड़ा सा उपर उठा दिया, बाहर की फुर-फुर ठण्ढी हवा अन्दर प्रवेश कर तन-मन को शीतलता प्रदान की। हम तीनों हीं चुपचाप थे, हो सकता है हमारी हृदयों को समान रुप से तरंगायित कर रही हो। सेनदा घड़ी देखा, छ: बज चुके थे। उनका आखों का इशारा और हम सब सज-धज कर तैयार तथा 15 मिनट के अन्दर आद्रा रेलवे प्लेटफार्म पर खड़े हुए। फ्लेटफार्म भी बिछावन से नाता तोड़कर अपनी स्वाभाविक ट्रेक पर दौड़ना शुरु की थी सो वह अंगड़ाई लेती दिख रही थी। एक-दो टी स्टॉल खुली हुई बाकी के पट्ट कुनमुना रहे थे और स्टेशन परिसर में झाड़ू-बुहारू लग रही थी, यात्रियों के हल्के-हल्के झुण्ड बड़ी निर्ममता से लॉगेजों को खींचते बाहर निकलने का प्रयास कर रहे थे। वैसे आश्चर्य की बात जो देखा वो यह थी आद्रा रेलवे जंक्शन का परिसर रेलवे सुरक्षा बल की मुस्तैदी आधुनिक अस्त्रों के साये में लिपटी। मुझे लगा कि जरुर कोई बड़े मंत्री का दौरा होगा इसलिए यात्रियों के भीड़ पर गहरी नजर रखी जा रही थी। परन्तु उतनी सतर्कता के बावजूद भी पता नहीं “वादियों”का समूह कहाँ से प्रकट हो जाते हैं और संत्रास का हृदय विदारक चित्र बना सबके सामने से अपना सिना फुलाये चले जाते हैं एवं पिछे छोड़ जाते हैं मानव शरीर का रक्त-रंजीत टुकड़े तथा स्थावर सम्पत्तियों के जलते हुए राख-धुओं के ढेर। लगता है सुरक्षा बलों की छवि केवल देखने भर हीं तैयार की गई है, विघटनकारी कार्यों को रोकने के लिए नहीं और विघटनवादीयों के बारे में मिडिया साक्षातकार लेकर कहती है कि ये लोग भी काफी शिक्षित हैं पर लानत है इनकी शिक्षा पर जहाँ मानवता की हत्या को आन्दोलन कहते हैं।
हमलोग स्टेशन से बाहर निकल आये, गेट के सामने हीं रेलींग से घिरी टैक्सी व अन्य गाड़ियों के स्टैण्ड। दाहिने बाजू में रोड तथा रोड के दाहिने किनारे एक कतार में चाय-पकौड़े एवं मिठाई की दुकानें, मोदीखाना, स्टेशनरी दुकान आपस में प्रतियोगिता करते हुए पाया जिनकी सजावटें देखकर शायद कोलकाता एवं कोलकाता संलग्न शहरों के बाजार भी शर्म से चेहरा घुंघट में छिपा लें। कहाँ कोलकाता ए-वन सिटी और पुरुलिया जिले का अदना सा उपनगर आद्रा का बाजार दोनों में कोई समानता नहीं है फिर भी एक से एक दुकाने तथा शो रूम को देखकर दाँतों तले उँगलियाँ दबानी पड़ती है क्योंकि देखा जाय तो यहाँ कर्म-संस्थान कहने को केवल आद्रा रेलवे डिविजनल मुख्यालय है दूसरा कुछ भी नहीं तो यहाँ के बाजार में क्रेता कहाँ से आता होगा?
सड़क के किनारे के एक ढाबे में हम तीनों ने विश्राम किया वह भी चाय  पीने के लिए पहुँचे लगभग 20 मिनट गँवाकर। ऑटो सवारी का नियम बनाया गया है जब-तक सवारियों की संख्या पुरी नहीं होगी ऑटो टस से मस नहीं होगी। खैर हमलोग भाग्यवान ठहरे बड़ी जल्दी संख्या पुरी हो गई और ऑटो की ईंजन किरासन मिश्रित डिजल जलाते काली धुँआ छोड़ते गर्र से। भोर का समय यात्रियों की सँख्या सिमित पर उससे से भी अधिक बोझ लादे चींटी की भाँति काली सर्पीली सड़क पर रेंगती जा रही थी। बीच रास्ते में एक रेलवे क्रासिंग आई, दस मिनट तक इन्तजार करना पड़ा तब जाकर धड़-धड़, खटाखट-खटाखट-घट-घट करती एक ट्रेन हमारे दाहिने से बाँयी ओर भाग गई। क्रासिंग का बाधादण्ड रास्ता से उठा और हम आगे बढ़े। बमुश्किल से सात मिनट में नन्दुआड़ा मोड़ पर ऑटो का भाड़ा मिटाकर वहीं से हमलोगों ने बाँयी तरफ का रास्ता पकड़ा जो जयचण्डी पहाड़ी की ओर जाती है। ज्यादा से ज्यादा 100 मीटर की दूरी तय की थी, दो-तीन परिचित ग्रामवासी बंधु से भेंट हो गई,प्रसन्नता के साथ एक-दूसरे से मिले। जयचण्डी एक पहाड़ी क्षेत्र है और हमारी क्लब प्रत्येक वर्ष पर्वतारोहण शिविर का आयोजन करती है तथा शिविर की सफलता स्थानीय बंधुओं की सहायता के बीना संभव हीं नहीं। फलस्वरुप यहाँ के लोगों से पहले आलाप तत्पश्चात बंधुत्व और यही बंधुत्व बाद में आत्मियता का रुप ले चुकी है। यहाँ आने पर यदि उनसे नहीं मिले तो उन्हे दु:ख पहुँचता है पर हमलोग इस बात का सदैव ख्याल रखते हैं कारण ये लोग हमारे शिविर में जितना सहयोग करते हैं शायद उतना किसी अन्य क्लब को नहीं मिलता है। भला ऐसे हितैषी को कोई क्यों कर खोना चाहेगा? इन बन्धुओं को आज के महत्वपूर्ण कार्य के बारे में बताया और आगे बढ़े। 20 कदम की दूरी पर जया डेकोरेटर्स का ऑफिस सह आवास था जिसका संस्थापक जगन्नाथ नामक युवक है इससे मिलकर शिविर का स्थान देख लेने को कहा, उसकी उस समय कुछ असुविधा थी और शिविर स्थल की ओर न जाकर वन दफ्तर को सूचना पत्र देने के लिए वापस लौटते नन्दुआड़ा मोड़ होते हुए सिधा रघुनाथपुर पौरसभा को क्रॉस कर 30 मिनट पैदल चलते रहे। सारा रास्ता हम तीनों कदम से कदम मिलाते हुए बकर-बकर करते रहे। कहावत है बकरा क्या नहीं खाता, बिल्कुल कुछ ऐसा हीं बकवास करने के लिए किसी खास विषय की आवश्यकता नहीं पड़ती है। बस एकबार शुरु कर दो फिर देखोगे रावण ने राम को परास्त कर दिया और कंस ने कृष्ण को। यारों बकवास कहो या बहस सदैव निरर्थक होता है ऐसी कोई बात नहीं है, पैदल चलते समय यह उर्जा का कार्य करती है तथा पैदल चलनेवालों को थकने नहीं देती है और उबाउपन से सुरक्षा प्रदान करती है। बहस करते समय किसी न किसी विषय पर हँसी तो आती हीं है और यह एक लाफिंग गैस है अर्थात नाइट्रस गैस है जो शरीर के प्रत्येक कोशों में उर्जा रुपी विद्युत प्रवाह को तरंगायित कर कोशों में कम्पन की सृष्टी करती है जिससे कोशों की मरम्मत होती है तथा रोग प्रतिरोध की क्षमता बढ़ती है।
ऐसा हीं बहस में लीन हम तीनों किन-किन जाने-अन्जाने रास्तों को माप गये की पता हीं नहीं चला और रघुनाथपुर बाजार से होते हुए रघुनाथपुर पौरसभा के मोड़ तक पहुँच गये। यहाँ आकर सेनदा ने कहा-अब भाई चला नहीं जायेगा क्योंकि ईंजन को ठीक से चलने देने के लिए कोयले-पानी की आवश्यकता है। अत: रास्ते के दोनो ओर हमारी दृष्टि कोयले-पानी को ढूंढने लगी परन्तु उपयुक्त स्थान न पाकर वन दफ्तर की राह पकड़े बढ़ते चले गये। बीच राह में एक उपयुक्त स्थान को देखकर चार-चार कचौड़ियाँ एवं मिठाईयाँ उदरस्थ कर लम्बी डकार लेते हुए भुगतान करने के बाद वास्तव में ईंजन में तेजी आ गई। ईधर धूप की रम्यता का आकर्षन कमता जा रहा था एवं धूप की प्रखरता बढ़ती जा रही थी। यहाँ रास्तों पर बेलगाम बाइकों के रफ्तार को देख नविन आश्चर्यवाली उक्ती की-अच्छा भाई मुकुल, तुम तो छात्रों को पढ़ाते हो कि भारत एक गरीब देश है? मैंने कहा-इसमें कोई शक नहीं है क्योंकि अपने देश में बेरोजगारी ऐसी बढ़ी है कि लोगों को एक वक्त का भोजन भी मय्यसर नहीं है। मेरी बात पर असहमती जताते हुए नविन ने कहा-अच्छा सुनो, एक मोटरबाईक का मुल्य निश्चित रुप से दो हजार नहीं है। लगभग एक लाख रुपये और एक लाख रुपये के वाहन व्यवहार करनेवालों की संख्या यहाँ देख हीं रहे हो! बाइकसवारों को देख नहीं लगता है कि कोई जरूरी काम से रास्ते पर निकला है, बाजार में चाय पीने के लिए या अड्डे मारने के लिए यदि लोग बाईक व्यवहार करें तो निश्चित रुप से बेरोजगारी नहीं हैं और जो बेरोजगार होगा वह कभी भी फिजूलखर्च के बारें में सोच हीं नहीं सकता है। लाख रुपये की बाइक, मुँह में शिखर या गुटखा, आँखों में बेढंगे चश्में, नये फैशन के जीन्स के कपड़े(शालिनता कम लफंगे ज्यादा दिखनेवाले) पहननेवाले को बेकार कहना मुझे उचित नहीं लगता है। आप शिक्षकगण बच्चों को देश की झूठी छवि दिखलाकर उन्हे डीप्रेश्ड करते हो। जिस देश की सड़कों पर वाहनों का उपयोग फिजूलखर्ची में होता है उसे गरीब कहना सरासर गलत है। अब हम वनाधिकारी के दफ्तर के सामने थे जिसका परिसर पाँचिल से घिरा, प्रवेश पथ लोहे के ग्रील से सुरक्षित थी जिसे पारकर अन्दर कदम रखा और एक व्यक्ती हमारे सामने आ खड़ा हुआ तथा अपना परिचय दिया कि वह पीउन है । उसे देख सरकारी विभाग का कर्मचारी कम स्थानीय ग्रामवासी कहना श्रेयस्कर लगा क्योंकि उसने जो कपड़े पहने थे-एक बारमुडा पैंट एवं बांह कटी गंजी, कंधे पर एक गमछा, आखों में गंदगी, चेहरे पर लापरवाही। भला ऐसा व्यक्ती कभी सरकारी दफ्तर का पिउन हो सकता है! भई मानना पड़ेगा सरकारी नौकरी भाग्यशालियों को हीं मिलता है। हमें बैठने को कहा गया-आपलोग बैठो, साहब आ रहे हैं। साहब आ रहे हैं तो आ हीं रहे हैं। बैठने के सिवा दूसरा कोई काम था भी नहीं सो हमलोग दफ्तर के अन्दर लगे पर्यवेक्षण करने और आश्चर्य हुय़े बीना नहीं रह सके कारण वनाधिकारी का दफ्तर कम श्रमिक आवास ज्यादा लग रहा था, कमरे के अन्दर की सारी चीजें अस्त-व्यस्त, सेल्फ में रखी फाइलें जैसे-तैसे तथा एक बड़ा सा विद्युत पंखा घेंग-घेंग कर रहा था और कमरे के बाहर पाँचिल से सटा हुआ सुबावला, पलाश,युक्लिप्ट्स के उँचे-उँचे पेड़ जिनकी डालों पर पक्षियों का किचिर-मिचिर करता हुआ झूण्ड बड़ा हीं आकर्षक लगा। ऐसे दृश्य को देख अपना बचपन याद आ गया कि मैं भी एक समय झोप-झाड़ में घुमते पक्षियों एवं तितलियों के पीछे भागा- फिरता था। जितना आनन्द मिलता था कि पढ़ना-लिखना कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। आज के बच्चों को स्कूल, ट्यूशन, ड्राइंग, कम्प्यूटर एवं डान्स के क्लास से छुट्टी हीं नहीं मिलता है, बस यंत्र मानव बना पराधिन जीवन(स्वाधिन देश में) जीने का अभ्यास कर रहा है। इन्हे पर्यावरण का ज्ञान किताबों में फोटो दिखलाकर दी जाती है। इनके ज्ञान का कोई मोल हीं नहीं रहेगा क्योंकि प्रकृति के साथ इनका सम्बन्ध नहीं रह जायेगा, केवल स्वार्थ से जूड़ी शिक्षा इन बच्चों को दी जा रही है जहाँ अधिक से अधिक पैसा कमाना हीं मूलमंत्र है जीवन का और दुनिया के सारे सुख को पैसों से खरीदा जा सकता है।
साहब जी आये। एक - दूसरे को सादर अभ्यर्थना, कारण भी था साहबजी और हमारा क्लब एक हीं जिले के सो उनको खुशी इसी बात पर थी। कागजी कारवाई पुरी हुई तथा साहबजी ने हमें पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। फिर हमारे लिए चाय-बिस्कूट की ताजगी और हम भी खुश। आद्रा में भी हमारे क्लब के सदस्य हैं जो आद्रा रेलवे के डिविजनल हेडक्वार्टर में स्टोर-किपर हैं जानकर साहबजी बड़े खुश अर्थात वनाधिकारी महोदय बड़े उत्साह के साथ हमारी क्लब के प्रशंसा में एक-एक गुलाब का फूल भेंट कर हीं दम लिए - आपलोगों ने समाज को जोड़ने का दायित्व भी अपने कंधे पर उठा ळिया है, सचमुच में यही है मानवियता। हम सभी मानवता की बात तो अवश्य कर लेते हैं पर कार्य का अमली जामा नहीं पहना पाते हैं। अत: मैं एक सरकारी अधिकारी होने के नाते आपलोगों के प्रति आभारी हूं। अपनी प्रशंसा सुनकर हम तीनों का मुखमणडल गर्व से दमक उठा और बारी थी हमारी पिछे मुड़ तेज चल की। हमलोग एक बार फिर ग्यारह न. की बस पर सवार, साथ में बक-बक का पिटारा जो एक बार खुल गई तो एक के बाद एक निकालते जाओ। कभी खाली होती हीं नहीं है। चलते जा रहे हैं। रास्ते में सब कुछ वही था सिर्फ भीड़ बढ़ गई।
सब्जी बाजार् मिली, बाजार की उँचाई देखने की ईच्छा हुई जिसे देख भागने का मन किया। औसतन बीस से तीस रुपये किलो आलू सह अन्य सारी सब्जियाँ। लोग क्या खाकर जीवित रहेंगे। मैंने अपने इस 40 से उर्धव उम्र में नहीं देखी। इधर सरकारी रिपोर्ट में कहा जा रहा है भोज्य सामाग्री का रिकार्ड उत्पादन हुआ है तो क्या अर्थशास्त्रियों के इलास्टीसिटी ऑफ डिमान्ड का सिद्धांत गलत है? जनसाधारण में त्रास घर कर गई है पर प्रतिवाद का कहीं कोई लक्षण नहीं दिख रहा है। वास्तव में नागरिक प्रतिक्रियाहीन बन गये हैं। एक घटना याद आ गई , एक बार बाजार में प्याज की कीमत सत्तर रुपये पहुँच गई थी और इसके विरोध में हमारे एक सासंद जो लोकप्रिय फिल्म अभिनेता भी थे, गले में प्याज की माला बनाकर अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर निकल पड़े थे। परन्तु आज वे दिवंगत और उनके पदचिन्हों पर चलने का साहस न तो किसी नेता में है और ना हीं जनता में। पता नहीं इस देश का भविष्य किस ओर जायेगा? बाजार के साथ-साथ धूप भी उग्र होता जा रहा था। हमलोग भी आगे बढ़ते जा रहे थे। बीच रास्ते में एक साफ-सुथरा मिष्टान भण्डार देख नविन ने आग्रह किया कि चलो थोड़ा सुगर बढ़ाने की तैयारी करते हैं। दुकानदार माड़वारी था पर उसकी भाषा सुन पहचान पाना असंभव था। लगा कि वह पुरुलिया जिले का हीं है। नविन उसका पूर्व परिचित था सो वह नविन को देख बड़ा प्रफुल्लित हुआ। तदुपरान्त हमदोनों से परिचय हुआ। मेरा नाम-पदवी सुन नविन से पुछ बैठा –मैं भी राजस्थानी हूं। मैं मुस्काया परन्तु उस व्यक्ती की दूरदृष्टिपूर्ण तर्क सुन मन हीं मन उसकी प्रशंसा किये न रह सका, उन्होने राजपुतों के इतिहास के बारें में बताया कि राजपुत किसी भी राज्य का रहनेवाला हो पर मूल तो राजस्थान हीं है सो हम तो इन्हे भी अपना राजस्थानी भाई हीं कहेंगे। इसी भ्रातृत्व के आदर्श के कारण हमारे माड़वारी समाज दुनियाँ के किसी भी कोने में अपनी सफलता के झण्डे गाड़ लेते हैं। हमलोगों के साथ ग्राहक कम अतिथि का सत्कार ज्यादा था। हालांकि उनके दुकान में भीड़ थी फिर भी हमारे साथ बैठ कुशल-क्षेम व प्रयोजन जानना तत्पश्चात सहयोग का आश्वासन भी दिया। सबसे अच्छी लगी नविन एवे उनके बीच उनकी मातृभाषा में बातें करना जो अन्य भाषाई लोगों में नहीं देखी जाती है। एक हीं देश व राज्य के रहनेवाले(इण्डियन्स) थोड़ा शिक्षित हो जीवन स्तर उँचा हुआ कि आपसी सम्पर्क अंग्रेजी भाषा के माध्यम से करते हैं पर ऐसी बात माड़वारी समाज में न के बराबर है। यहाँ से विदा ले फिर पैदल। 20 मिनट बाद नन्दुआड़ा मोड़ पर वापस । मोड़ के दाहिने तरफ अपने परिचित एवं शिविर के सहयोगी मित्र प्रदीप सिंहानिया का आवास एवं दुकान थी, उनसे मुलाकात की और पौरसभा से शिविर के लिए पेय जल एवं थाना से सम्पर्क करने का दायित्व तथा शिविर के प्रथम डेढ़ दिन का राशन की तालिका थमा दी गई। वैसे एक बात तो कहना मैं भूल हीं गया कि सिंहानियाजी भी माड़वारी हैं और हुगली जिले से पुरुलिया में हमारे पर्वतारोहण के लिए उत्साही मित्र का मिलना बहुत बड़ी उपलब्घि है हमारे क्लब की। इस प्रकार शिविर आयोजन की कागजी तैयारी समाप्त हुई। अंत में सिंहानियाजी ने हमलोगों के लिए हल्की रिफ्रेशमेंट की व्यवस्था की जिसने हम सबके अन्दर ताजगी का भण्डार आरक्षित कर दी।
इसके बाद सेनदा वहीं से मोबाइल फोन पर सम्पर्क किया लखन कर्मकार से यह वही व्यक्ती है जिनका उल्लेख वनाधिकारी महोदय के सामने किया था और हमलोग जयचण्डी पहाड़ के रास्ते की ओर मुड़े। सामने हीं डेकोरेटर्स का ऑनर जगन्नाथ इन्तजार करता मिला और अब हमारी संख्या चार हो गई। पहाड़ी रास्ता तय करने में बिना परिश्रम के हीं थकावट आने लगती है और उपर से उदर में जो भी था सब हजम हो गया। जिस स्थल पर हमारी पर्वतारोहण शिविर लगेगा उसका हमने निरिक्षण किया तथा कहाँ, क्या करना होगा, हमारी आवश्यक सामग्री क्या-क्या लगेगी इस विषय पर जगन्नाथ के साथ अभी हम चर्चा कर हीं रहे थे कि सेन का मूठाभाष पिपियाने लगा। दूसरी ओर से लखनदा  हमारा अवस्थान जानना चाहा एवं पाँच मिनट भी नहीं गुजरा कि लखन सशरीर अपनी मोटर बाइक पर हमलोगों के सामने। उसने अपनी बाईक की डिक्की खोली और दो पैकेट निकाले, उसमें गरम-गरम समोसे तथा भेजीटेबल चॉप था। हम चारों इन वस्तुओं को नास्तानाबूद करने के लिए पुरी शक्ती के साथ टूट पड़े। अपने इस छोटी सी ठिफिन में हिस्सा लेने के बाद जगन्नाथ चला गया और लखन के साथ पर्वतारोहण के ट्रेनिंग के विषय में चर्चा करने के बाद लखन हमलोगों से विदा ले लौट गया एवं अंतिम कार्य रह गया था शिविर के लिए लाइट की व्यवस्था करना, इसलिए जयचण्डी पहाड़ से रघुनाथपुर बस टर्मिनस की तरफ रवाना हुए। जयचण्डी मन्दिर के पश्चिमी तरफ खेतों-पगडण्डियों को पछाड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। अभी वर्षा पुरी तरफ समाप्त नहीं हुई है। खेतों में धान के लहलहाते फसलों की बालियाँ शीश झूका हवा के साथ ताल मिला रहा था मानो कोई नई-नवेली दुल्हन घुंघट में चेहरा छिपाये अपना आत्मिक स्नेह से हमारा उत्साहवर्धन कर रही हो। तालाबों में वर्षा का जल तथा उसमें शालूक-स्याप्ला(कमल जातिय पौधा जिसका उपयोग बंगाल में सब्जी के रुप होता है) का चादर बिछा था जिसे देख शीतलता का अनुभव हो रहा था। जयचण्डी पहाड़ का प्राकृतिक सौन्दर्य तो अतुलनीय है। इस सौन्दर्य का सुख दिसम्बर-जनवरी में कभी नहीं मिलता है। एक तो अभी शरतकाल और जब हम शिविर के लिए आते हैं, शीत ऋतु का साम्राज्य रहता है तथा खेतों में फसलें नहीं सिर्फ सूखी मिट्टी, बीच-बीच में कहीं-कहीं पर गीली काली मिट्टी दिख जाती है। पहाड़ों को ढँक लेनेवाले घास-झोप-झाड़ स्थानीय ग्रामवासियों द्वारा काट लिए जाते हैं तथा पहाड़ का मुण्डन कर बाप का श्राद्ध करने को छोड़ देते हैं। उपर से पाश्चात्य जीवन शैली का अन्धानुकरण करते हुए पिकनीक करनेवाले इस पहाड़ी क्षेत्र में जूठे पत्तलों –शराब की बोतलों के टुकड़ों का अम्बार सजा छोड़कर चले जाते हैं, यह सब देखकर लगता है आधूनिक शिक्षा में पर्यावरण को बचाने का पाठ शायद यही सिखाया गया है।
रघुनाथपुर बस टर्मिनस पहुँचकर सेनदा बस सिन्डीकेट दफ्तर में गये और वापस लौटकर बोले कि 12.45 मिनट पर कल्यानेश्वरी की बस छुटेगी। हमारे हाथ में मात्र एक घंटा है, इसी में शिविर की लाइट की व्यवस्था, हल्का-फुल्का ले भी लेना है। सेनदा के कथन को सुनकर मैं हकचकाया क्योंकि कल्यानेश्वरी का नाम इसके पहले मैंने सुना हीं न था और ना कोई पूर्व जानकारी जैसे अवस्थान, दूरी, यातायात के साधन, आने-जाने में समयादि। मेरे पुछने पर कहा-कल्यानेश्वरी कहाँ है और क्यों जाना चाहते हैं, तुम ठहरे नास्तिक –जाना नहीं चाहोगे। पर वहाँ पहुँचकर तुम्हारा साहित्यकार मन खुश तो अवश्य होगा......वैसे यहाँ एक मातृ-मन्दिर है पर प्राकृतिक सौन्दर्य की रानी है और इसी बहाने मैथन बाँध भी देख लोगे। मैं पहले तो जाने से कतराया पर अंत में मान गया। कल्यानेश्वरी देखना शायद मेरे भाग्य में था, मैंने मैथन बाँध का नाम सुना था पर कभी देखा नहीं था। परिणाम जल्द से जल्द पूर्व नियोजित कार्य की समाप्ती की गई। बीच रास्ते में हीं सेनदा एक ढाबे से कुछ समोसे खरीद लाये तथा रुकसैक में डाल लिया।
प्रारम्भ हुई हमारी छोटी यात्रा का दूसरा अध्याय। टर्मिनस से बस छुटनेवाली थी एवं हम तीनों को दौड़कर बस पकड़नी पड़ी। एकदम यात्रियों से खचाखच, कोई भी सीट खाली नहीं। साढ़े तीन-चार घंटे की दूरी वह भी खड़े-खड़े यात्रा। कपाल में भाँज पड़ गये, सोचने लगा ट्रेन की यात्रा कहीं बस से ज्यादा सुखदायी है। ट्रेन में होते तो कोई बात नहीं थी पर यहाँ तो बस की ईंजन की घरघराहट भर से हीं शरीर में अस्थी-मांस के मध्य विच्छेद शुरु हो गया था। धिरे-धिरे रघुनाथपुर बस टर्मिनस, बाजार, पौरसभा सभी एक-एककर पीछे छुटते गये तथा बस की गति गतिशील से तीव्रतर होती गई। साथ हीं साथ रास्ते में आई बस स्टॉपेजों पर यात्रियों की चढ़ने-उतरने से हमारे शरीर का बैंड बजने लगा। कभी आगे तो कभी पिछे, कभी दाहिने तो कभी बाँये, हिचकोले पर हिचकोले भरपेट खाने को मिल रहे थे। खाना भी ऐसा कि प्रत्येक ग्रास पर बाप रे बाप, ओह-आह तथा गीक्क-गीक्क सभी यात्री कर रहे थे। सबसे ज्यादा खराब हालत हम जैसे खड़े य़ात्रियों को हो रही थी। जब भी कोई पड़ाव आती तो लोग चढ़ने या उतरने को ऐसे उतावले हो उठते कि किसी का पाँव कुचल गया तो किसी को केहुनी का ठूस्सा, कोई चोट खाकर अपनी नाक सहलाने लगा, कोई सामानों से ठेस खाकर दूसरे को ऐसी दृष्टी से देखता मानों अवसर मिल जाय तो कच्चा हीं चबा जायेगा। तिस पर कन्डक्टर की ठेलाठली और टिकिट-टिकिट कहते हुए ता....थैय्या का नाच। हमलोग भाग्यशाली रहे क्योंकि हमें सीटें मिल गई थी पर हिचकोला खाना बन्द नहीं हुआ। सीट पर बैठकर भी चैन नहीं। बस का काला चक्का काली पीच की सड़क पर रप्प-रप्प करते हुए कोलाहलपूर्ण वातावरण से निकल शांत वातावरण में आ चुकी थी। बस की खिड़की से बाहर नजर दौड़ाने पर दूर-दूर तक कोई मानव बस्ती नहीं दिखाई पड़ रही थी, केवल खेतों में हरे-भरे फसलों का कालिन बिछा हुआ और मेंड़ों पर या कहीं झोप-झाड़ के रुप में काश फूल जो रुई के फाहों के ऐसे बादलों के रुप-रंग में गगन को हीं धरती पर उतरा हुआ प्रतीत हो रहा था। अन्तर इतना हीं था गगन तो नीला है पर यह हरे रंग का है। पीच की बनी सड़कों के दोनो ओर सुबावला, शिरिष, पलाश तथा कृष्णचूड़ा के वृक्षों की कतारें अपना सर को हिला-हिलाकर अपनी टहनियों को गलबहियां करा रहे थे। इन्हे देख मुझे लगा जैसे सैनिकों का दल अपने बड़े अधिकारी को गार्ड ऑफ ऑनर दे रहे हों। ऐसे दृश्य को देख मैं रोमांचित हो उठा। बीच सड़क पर बस जहाँ रुकती वहाँ एक-दो चाय-पान-बीड़ी की दुकान वह भी हठात कॉलोनी की तरह जिसमें दूर गाँव से पैदल चलकर आये यात्री के लिए विश्रामागार के रुप में व्यवहार होता है। जैसे हीं बस आगे बढ़ी कि थोड़ी देर पूर्व का विश्रामागार सुनसान हो जाता है। यह देख मन ग्लानी से भर उठता है कारण हमारा देश गाँवों का है और ईक्किसवीं सदी में प्रवेश कर विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी-तकनिकी के क्षेत्र में अपना झण्डा गाड़ चुके हैं पर किस काम का जहाँ एक किसान या मजदूर को बस या अन्य वाहन का उपयोग करने के लिए  उसे खेतों की पगडंडियों पर सर या कंधे पर बोझ उठाये बस स्टॉपेज तक पैदल चलकर आना पड़ता है अर्थात यातायात की सुविधा के क्षेत्र में अभी भी हम सौ वर्ष पिछे हीं हैं। लगभग एक घंटे से अधिक की दूरी तय करते-करते, हिचकोले खा-खाकर मेरुदण्ड अकड़ गई एवं नितम्ब सुन्न हो चुके थे। तन्द्रा आ रही थी, भूख भी अपना प्रभाव दिखाना शुरु की। अचानक कन्डक्टर के साथ पिछे की ओर किसी यात्री के साथ तू-तू-मैं-मैं होनो लगी, उनका विषय क्या था यह तो समझ नहीं पाया पर कन्डक्टर का पड़ोसी हिन्दी भाषी राज्य के प्रति अपशब्द कहना मुझे बड़ा बूरा लगा और मैं बिन बुलाये मेहमान की तरह कन्डक्टर से भीड़ गया-ओ भाई कन्डक्टर, यदि उस व्यक्ति ने तुम्हे कुछ कहा तो तुम उसे व्यक्तिगत रुप से उसको गाली दो, मारो-पीटो कोई कुछ नहीं कहेगा पर तुम उसके राज्य को क्यों गाली दे रहे हो? प्रत्युत्तर में उसने मुझे भी आँख दिखाया लेकिन हम तीन थे इसलिए युद्ध में जीत हमारी हुई। परन्तु यारों दु:ख इस बात पर हुआ कि हमने जिसके लिए विरोध करने का साहस दिखाया, पता नहीं वह कब उतर गया हमें पता हीं न चला। सेनदा सैक से समोसों को बाहर निकाला और यात्रियों की परवाह किये बीना उदरस्थ कर राहत का अनुभव किया। कुछ पल बस रुपी हिंडोले में नींद की साये खो गया। जब आँख खुली तो दूसरा कोई काम तो था नहीं उपर से ड्राईवर के पास की सीट खाली हो गई थी, मैं वहीं जाकर बैठ गया और बस की खिड़की एवं ड्राईवर के सामने से सड़क के आस-पास के दृश्यों पर नजर जितनी दूर तक जा सकती थी उसका अवलोकन करने लगा। गाँवों का कोई नामोनिशान न था, यदि दिखा भी तो चार-पाँच घरों का हीं, चारो ओर खेतों एवं हरे झाड़ियों का बागिचा तथा आकाश को छूने की प्रयास करता हुआ गर्व से सर उठाये उँचे-उँचे पेड़ की झूरमुटें। साँप की तरह रेंगती बलखाती सरपट-सरपट करती सामने की ओर भागती हुई सड़क एवं पगडण्डी आपस मे प्रतियोगिता कर रही थी। दूर से सड़क सँकरी पर नजदिक आने पर चौड़ी होती दिख रही थी। दूर से एक तालाब मुझे बाँयी ओर दिखाई दिया जो सड़क के साथ-साथ टेढ़ी-मेढ़ी भागती हुई मिली, उसका जलराशि उल्टी कढ़ाई की भाँति लगी तथा हरिताभा रंग मुझे भ्रमित कर दिया था। मैं आश्चर्य में डूब गया कि कोई जलाशय भी ऐसा होता है। लेकिन सेनदा ने बताया की यह जलाशय नहीं बल्कि बराकर नदी है और माइथन बाँध (डैम) इसी पर बनाया गया है। एकदम सही था। बाँध पर सड़क का निर्माण हुआ है। बस दौड़ रही थी सड़क पर जो योजनापूर्वक बनाई गई जिसकी तटबंध सिमेन्ट की सहायता से उँची ढलान पर निर्मित थी। सड़क और नदी की आकृति एकसमान अंग्रेजी अक्षर”S” की भाँति भागती जा रही थी। नदी का प्रवाह पथ यहाँ चट्टानों दर चट्टान से अटा हुआ तथा जलराशि इन चट्टानों पर उछलती-कुदती झाग बनाती हुई हमारे दाहिनी ओर कल-कल की ध्वनि का सुर सुनाती प्रवाहित हो रही है। भ्रमित मैं क्यों न होता! एक हीं नदी का दो रुप-एक तरफ की जलराशि हरितीमा में नीलापन लिए एकबारगी गम्भीर और दूसरी तरफ दूध की फेन की तरह जलराशियो का नृत्य। ऐसे दृश्य को देखकर भला कोई आकर्षित हुए रह सकता है क्या? भई मानना हीं पड़ेगा एक हीं नदी के दो-दो रुप को इकट्ठा करने का श्रेय मनुष्य के पुरुषार्थ का है। नदी पर बाँध पूर्व से पश्चिम को जोड़े हुए था। फलत: बाँध संलग्न दफ्तर एवं आवासीय क्षेत्र को भी आकर्षक बनाया गया था जैसे हिमालय की गोद में बसा कोई छोटा सा शहर हो। बाँध का मध्य स्थल थोड़ा उँचा और दोनो छोर ढालू व दोनो किनारा रेलिंग से घिरा रंग-रोगन किया हुआ एवं रात के समय वैद्युतिन खम्भों पर प्रकाश बिखेरता कितना सुन्दर लगता होगा, इसकी कल्पना मात्र से हीं पुन: आकर देखने की ईच्छा अभी से हीं अंगड़ाई लेने लगा। इधर मैं बाँध के सौन्दर्य का रसपान कर रहा था और उधर बस उँचाई से उतरकर समतल भूमि पर दौड़ रही थी। बराकर नदी को हमने पिछे छोड़ दिया तथा सड़क जिस ओर जा रही थी वह शायद वनांचल है। चारो ओर झोप-झाड़ से भरा और हरियाली में लिपटा निराला इतना कि यहाँ के स्वाभाविक सुन्दरता को देखकर विश्वास हीं नहीं हो रहा था हमारे गृह-प्रान्त पश्चिम बंगाल मे कम समय व कम खर्च में अनुपम छटा का रुप निहार सकते हैं! इससे पूर्व मैंने जितनी दूरी तय की थी वह सभी अधिक खर्च/समयवाला था। यह क्षेत्र जनहीन और धिरे-धिरे घने जंगल में परिणत होता जा रहा था। इसे एकदम घना कहना बेमानी लगती है पर कम भी नहीं, रास्ते के किनारे एक-दो मकान अवश्य पहरेदार की भाँति खड़े थे जो बस स्टॉपेज का पड़ोसी बना हुआ था। बस का काम तो दौड़ना हीं है सो वह दौड़ रही है और दाहिने एक त्रिमुखी मोड़ से गुजरी जिसके केन्द्र में सिमेन्ट की पट्टी पर मोटा सा तीर का निशान और लिखा हुआ था ‘झारखण्ड राज्य में आपका स्वागत है।’ बड़ा अटपटा सा लगा, अचानक परिवर्तन- आवास, स्त्रियों का पहनावा! बस में सवार यात्रीगण बंगलाभाषी से हिन्दी भाषी ! आस-पास दिखनेवाले घरों के चाल टाली के स्थान पर अर्द्धगोलाकार खपरैलों से छाई हुई, महिलाओं के साड़ी पहनावे में बंगालीपन गायब तथा गौर करनेवाली बात यह थी कि रास्ते के किनारे दुकानों की नामपट्टियां हिन्दी में और उसके मालिक घोष, दत्त, मण्डल, राय और मुखर्जी इत्यादि ।
थोड़ा सा और आगे बढ़े। झोप-झाड़ को पीछे छोड़ते बस हमें नई दुनिया में लिये जा रही है। इन पठारी झोप-झाड़ों से समृद्ध क्षेत्र में एक ऐसे दृश्य की झाँकि मेरा इन्तजार कर रही थी जिसे कई वर्ष पूर्व देख चुका था, उत्तरकाशी से साँकरी जानेवाली पहाड़ी रास्ता हिमालय के ढलानों पर पाईन वन के बीच से सर्पिली गति से चक्राकार घुमती हुई जाती है और प्रकृतिक सौन्दर्य तो अवर्णनीय है। आज द्वारा ऐसा हीं मनमोहक छटा से मेरी आँखे चार हुई। आश्चर्यचकित तो मैं अवश्य हुआ कि यहाँ हिमालय का सघन-गहन ढालनुमा वन कहाँ से आया ! परन्तु ऐसा हीं भौगोलिक रुप यहाँ देखने को मिला।
लगता है बस अब काफी तेज भाग रही है। सामने की सड़क काफी चौड़ी मिली और घनी आबादी भी। दो पड़ाव के बीच की दूरियाँ कम हो गई, चढ़ने-उतरनेवालों की रेलमपेल में भी तीव्रता आ चुकी है। शायद सामने कोई हाट या बाजार का दिन है। सीट पर बैठे-बैठे शरीर दुखने लगा था और आँखे भी जल रही थी, पाँव को कभी सीट के नीचे तो कभी सामनेवाली सीट के नीचे पसार तो ले रहा था लेकिन आराम कोसों दूर। घुटने टन्न-टन्न कर रहे हैं कंधे तथा बाहों के जोड़े फट रहे हैं। खैर इस पीड़ा से कुछ पल के लिए आराम मिला। हमारी वाहन एक पड़ाव पर पहुँच, बस का चालक –कन्डक्टर-खलासी तीनों के तीनों हीं एक होटल कम रेस्टोरेन्ट मे घुस गये। यह देख नविन ने कहा- चल यार, थोड़ा कमर तो सिधा कर लें। बस ने तो हमारी मशीन को जंग लगा दिया। हमलोगों ने अंगड़ाई और जम्हाई दोनो को गले लगाया एवं बस से उतरकर सड़क पर कदम रखा। दो-तीन मिनट की चहलकदमी तब जाकर कहीं शरीर में हल्कापन आया। सेन की ईच्छा का ख्याल रखते हुए एक ढाबे मे जा आसन ग्रहण किया। एक लड़का आया और पूछा- हाँ तो बाबुजी। क्या लाउँ, ठण्ढा या गर्म। चाय के लिए कहने पर संग हीं संग उसने कहा-बिहारी या बंगला। नविन ने कहा- अरे छोटू, हम तो बंगाल में रहते हीं है चलो आज बिहारी चाय चखकर देखते हैं। कुछ हीं पल में चाय हमारे सामने आई तो एक सोंधी महक मेरे नथुनों मे समा गई। यह महक चाय की स्वाद को चार गुणा स्वादमयी बना दी। ऐसी महकवाली चाय हमारे यहाँ नदारद होती है। इसके पश्चात हम फिर सड़क पर जहाँ अन्तर केवल भाषा का हीं देखा, बंगाली-बिहारी सब दिखने में एक जैसे। लगता है यही हिन्दुस्तानीयत है। भाषा की विशेषता इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उस क्षेत्र में बोली जानेवाली हिन्दी में मगही उच्चारणों की पुट मिल रही है जिसमें मधुरता के साथ-साथ बड़े-छोटे शिष्टाचार परिलक्षित थे।
बस पुन: एकबार काँपी और सारे पुर्जे को हिलाती गर्र......र्र करती भाग निकली। हमने कन्डक्टर से पुछा और कितनी देर लगेगी? बस पैंतालिस मिनट में, प्रत्युत्तर मिला। अगली पड़ाव दस मिनट बाद आई पर इसके पहले हीं कन्डक्टर के साथ एक यात्री का बक-झक हो गया, सार यह था कि एक यात्री महोदय रघुनाथपुर से हीं आसन पर विराजमान था और कन्डक्टर के भाड़ा मांगने पर मिलेगा-मिलेगा कहता रहा एवं उतरने लगा तो कन्डक्टर ने भाड़ा मांगा पर शिकायत भरे लहजे में। इतना हीं दोष था उस कन्डक्टर का, यात्री महोदय के स्वभिमान को चोट लग गई तथा बात का बतंगड़ बनने लगा। यात्री महोदय बंग्लाभाषी थे या नहीं, बोल नहीं सकता परन्तु उसने कन्डक्टर को धमकाया यह कहकर कि वापस कल आना बंगाल में, तेरी खबर लूंगा। लेकिन कन्डक्टर ने ठेठ मगही में यह कहते हुए कि मैंने तेरे जैसे न जाने कितने बंगालियों की धोती खोली है और यात्री को खींचकर पड़ाव से पहले हीं उतार दिया। सारा शोर-गुल समाप्त हो गया। पड़ाव पर बस रूकी तो मैंने सोचा कि झमेला होगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वहाँ से बस रवाना होने के बाद कन्डक्टर मेरे नजदिक आया तो मैंने मजाक में हीं हँसते-हँसते कहा- वाह भाई, आप तो पक्के गिरगिट निकले पुरुलिया से चले तो बंगाली बने थे और जैसे हीं इधर आ गये कि ठेठ बिहारी बन गये। मेरी बातों में छुपी कटाक्ष को शायद ताड़ गया और बंगला में मुझसे कहा- दादाबाबू, एक बस कन्डक्टर का जीवन ऐसे हीं छोटोलोकीपना से भरा होता है तथा एक कहावत है ना जब जईसन तब तईसन-नय तो....मरद कईसन। मैने उसके तुक में तुक मिला दिया। एक-एक करके पड़ाव पर पड़ाव आते जा रहे थे एवं मेरे मन में कल्यानेश्वरी के प्रति उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। स्थान का भौगोलिक रुप कैसा होगा, मंदिर होगा तो वहाँ के पंडो का रंगदारी देखने को मिलेगी, दुकानदारों का दल यात्रियों को मुर्गी बनायेंगे आदि विषय मन-मस्तिष्क में कौंध रहे थे। ऐसे उभरते तस्वीरों के साथ हम तीनों को कन्डक्टर ने उतार दिया एवं कहा- यहाँ से नाक बराबर पैदल चले जाओ। चलना शुरु किया। पक्की सड़क पर जन-मानवहीन। सड़क के किनारे कोयले के खदानों से निकले पत्थरों के ढेर एवं छोटे-छोटे टीले और सारे के सारे हर-भरे वनतुलसी के झाड़ियों से घिरे थे, इनके बीच-बीच में मोटे तने एवो शाखा-प्रशाखा वाले पेड़ अपनी बाँह पसारे आसमान को सर के उपर उठाये हुये थे। मानो कह रहे हों-जरा हमें भी तो देखो। जंगली लतायें इन सभी से लिपटे हल्के वन का रुप दे रखा था। कोयले खदानों के वर्ज्य पदार्थों से भरी सड़क एकदम सुनसान और हम तीनों चलते जा रहे थे। लगभग आधा घंटे कट गये पर बीच रास्ते में हम तीनों को छोड़कर दूसरा किसी अन्य मानव के दर्शन नहीं हुये। बस की यात्रा ने हमारी काया रुपी यंत्र का ब्रेकडाउन कर हीं दिया था इसपर से यह सुनसान जंगली सड़क हमलोगों को नाक के बराबर उँचाई पर चढ़ाते हीं जा रहा है। सब मिलाकर हम शारीरिक दंड भुगतने के लिए बाध्य हैं। हर घटना का अंत होता है पर हमलोगों की उबाउपन की स्थिति का अंत नहीं हो रहा था, एक घंटे पुरे होने को आ चुकी है।
एक बदलाव आया वो यह कि सड़क दाहिने किनारे उँची पठारी ढाल तथा बाँये की ढलान के बीच सड़क निचे उतरती जा रही है और दो मंजिले भवनों की कतारें दिखाई दी जो नजदिक जाने पर पता चला कि ये सभी होटल कम रेस्टोरेन्ट हैं परन्तु सभी सुनसान, इन होटलों के कर्मियों की निगाहें हमें लापरवाही से देख रही थी। सो हमने उत्सुकतावश एक के मैनेजर से जानना चाहा तो उसने बताया- दादा, दो दिन पूर्व मुख्यमंत्री का दौरा था और उनकी सुरक्षा के लिए पुलिसवालों ने सब कुछ खाली करा दिया क्योंकि यह क्षेत्र कई प्रकार के वादियों से प्रभावित है। धत्त तेरे की, आधा घंटे पहले झारखंड राज्य में और इस समय पश्चिम बंगाल में कैसे आ पहुंचा! खैर हमारे आगे बढ़ने के साथ-साथ दुकानों एवं मानवी काया के दर्शन होने लगे। दुकाने मिठाई तथा पूजा सामाग्रियों, कल्यानेश्वरी मंदिर की छवि, सती-पीठ के संग-संग अन्य देव-देवी की छवि तथा नारियों के सुहागन का प्रतिक शाँखा-पोला बेचनेवालों की थी। निर्जन वातावरण अचानक आध्यात्मिक वातावरण मे रमा हुआ मिला। मंदिर के प्रवेशद्वार तक पहुँचे जहाँ दोनो तरफ पूजन सामाग्री एवं मिष्ठान बेचनेवाले बड़े हीं मधुर स्वर में आकर्षित कर रहे थे-आईये, कम खर्च में पूजा एवं डाली चढ़ाने की व्यवस्था है। एक दुकान में हमलोग गये, उससे बातें हुई और नविन ने तीन डाली की व्यवस्था करने को कहा। मैंने जिज्ञासावश पूछा- यार नविन, पूजा तो तुम और सेनदा चढ़ाओगे यह तीसरी डाली किसके लिए? उसने बड़े हीं व्यंग्यात्मक ढंग से प्रत्युत्तर दिया-श्रीमान खोजीचन्द एक डाली तुम्हारे लिए है क्योंकि इसी वैशाखी के सहारे तुम अन्दर जा सकोगे और मंदिर का इतिहास जान सकोगे परन्तु एक बात है तुम इसके लिये पैसे पेमेन्ट करने की जिद्द मत कर बैठना। नविन के अंतिम कथन ने मेरे अहं पर आघात किया और मन हीं मन मैंने पूजा की डाली के पैसे चुकाने का मन बना लिया तथा जिद्द कर नविन को दे दिया एवं दुकानदार से पुछा – दादा कपड़े वगैरह नहीं न बदलने होंगे। दुकानदार ने बड़ा हीं संतोषजनक उत्तर दिया –मेरे भाई, माँ की दृष्टि में उसके सारे संतान एक समान होते हैं और उनका स्नेह सब पर बरसता है। जाओ मन्दिर का आंगन के नल पर हाथ-पैर-मुँह धो लो बस।
हम तीनों हीं मन्दिर के अहाते में प्रवेश किये। सेन और नविन के मध्य मैं। अहाता पाँचिल से घिरा, प्रवेशद्वार  को लांघकर बांयी ओर एक छोटा सा मन्दिर तथा उससे सटा हुआ एक बरगद का पेड़ जिसमें कच्चे सुते से बंधे अनगिनत ढेले लटके हुए थे। ये ढेले श्रद्धालूओं की मनोकामनाएं थी। इसके बाद एक बड़ा सा आंगन एवं उसी के भीतर एकदम बांयी ओर नल, चारो ओर पक्का तथा टाइल्स बिछाया हुआ। आंगन के पश्चिमी सिरे के संभवत: बीचो-बीच एक छोटा सा प्रवेश पथ जिसका किवाड़ मोटे काठ से निर्मित नक्काशी किया हुआ था और देखकर हीं लगता है वर्षों पुराना। केवल पुराना हीं नहीं किवाड़ काठ का नहीं बल्कि लोहे सा लग रहा था। यहाँ से प्रवेश कर अन्दर का दृश्य पुराने समय का बना बरामदे का था। दिवारें मोटी-मोटी तथा मुख्य मन्दिर के सामने हीं बनाया गया था, फर्शपर भी चिकना टाईल्स बिछा हुआ एवं बरामदे की छत-जलछत थी जिसमें काठ की बीम का प्रयोग किया गया था। मुख्य मन्दिर के दिवारों में कोई खिड़की नहीं थी, उसकी जगह छोटे-छोटे रौशनदान थे। मन्दिर का वातावरण एकदम शांत। पूजा देने आये हुए श्रद्धालू बारी-बारी से अन्दर आना-जाना कर रहे थे। प्रधान पुरोहित के सामने उपस्थित हो अपनी डाली आगे बढ़ाते और पुरोहित मंत्रोचारण कर डाली से पान-फूल-पत्ता आराध्य-आराधक को ले-देकर पूजन प्रक्रिया संपन्न कर देते थे। साथ हीं साथ श्रद्धालूगण पुरोहित को दक्षिणा देकर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे। हमारी बारी भी आ गई। अन्दर में वैद्युतिन प्रकाश की व्यवस्था थी जिसके प्रकाश में देखा एक बड़ा सा पत्थर लाल कपड़े से ढंका हुआ है। धूप-धूना के गंध से सुभाषित पूजन सामग्रियों का गंध युक्त होकर पुरोहित के मंत्र-श्लोकों का उच्चारित ध्वनियों का प्रतिध्वनि मानवीय हृदय के तार को स्पर्श कर आध्यात्मिक सुख प्रदान कर रहा था। एक अकल्पनीय भावना की स्थापना हेतु सारी परिस्थितियां आराध्य एवं आराधक के बीच सेतु-बंधन बना हुआ है। पुरोहित का मंत्रोंचारण एकदम स्पष्ट व सही होना प्रमाणित करता है कि पुरोहित शिक्षित है। बाद में पुरोहित ने बताया की वह स्नातक है। हाँ कल्यानेश्वरी का मन्दिर बंगाल की भूमि पर और उसका पुरोहित एक हिन्दीभाषी होना आश्चर्य की बात लगी वह भी वर्तमान समय की गति के सामने जहाँ अपनी-अपनी भाषा को श्रेष्ठ कहकर अन्य भाषा के अस्तित्व पर प्रशनचिन्ह लगाने की परंपरा को खाद-पानी दे-देकर सारे देश में अलगाव के पौधे उगाये जा रहे हैं। इसी का फल एक विदेशी भाषा को राष्ट्र की संपर्क भाषा बनाकर एक तरह से पराधिनता को गर्व मानकर खुश होते हैं तथा अंग्रेजी में बातें करनेवाले या सुनने-समझनेवाले को राजा के रुप में देखते होंगे।
मेरे आगे सेनदा और मैं उनके पीछे था। सेनदा की डाली आगे बढ़ी और पुरोहित अपना कार्य आरम्भ कर दिया। अचानक मेरे उपर पुरोहित की नजर पड़ी, उसने कहा-बैठ जाओ भैया, अपनी माँ के सामने प्रत्येक संतान अपनी मंगल कामना चाहता है। ऐसे में कब तक माँ से रूठे रहोगे, आखिर माँ की ममता ने आपको बुला हीं लिया। उस पुरोहित की बातें मुझे रहस्यमयी लगी परन्तु मैंने प्रकट नहीं होने दिया और अपनी डाली उसकी ओर बढ़ा दिया। डाली हाथ में लेकर एक क्षण के लिये उसने पलकें बन्द कर ली तत्पश्चात मेरे पीठ पर हाथ रखते हुय़े कहा- वास्तव में विश्वास करनेवाले को हठी नहीं बनना चाहिए। ज्ञान की बहती धारा में डूबकी लगाओ और पिपाशा को शांत करते रहो। इसमें सबका कल्याण होगा। पुरोहित की बातों में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह अपने कार्य में मग्न, मेरे कपाल पर तिलक लगाकर अप्रत्याशित ढंग से पूछा- भैया कुछ पुछना चाहोगे?
-हाँ। मैंने कहा,
-पुछो। परोहित का उत्तर मेरी तरफ आया,
-इस मन्दिर का इतिहास जानना चाहता हूं। मैं अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दिया। उसके बाद पुरोहित के अनुसार मन्दिर का इतिहास कुछ इस प्रकार सामने आया-यूं यह मन्दिर सात सौ वर्ष पुराना है पर इसकी चर्चा बाँध बनाते समय शुरु हुई। बाँध का कार्य इस क्षेत्र में किसी भी तरह से आगे नहीं बढ़ रही थी, दायित्व प्राप्त ईंजिनीयर परेशान होकर यहाँ छोटा सा मन्दिर बनवाया, आश्चर्य की बात है की बाँध बनने की गति तीव्र हो गई। बाद में वह ईंजिनीयर माँ का भक्त बनकर इस मन्दिर का पुणर्निर्माण करवाया। बाकी का काम जनता-जनार्दन के अन्धविश्वास ने पुरा कर दिया। एक कान से हजार कानों ने मन के विश्वास को सुदृढ़ कर आर्थिक संपन्नता प्रदान कर ट्रस्टी बोर्ड का गठन करवाये तथा धिरे-धिरे वर्तमान स्थिती में आपलोगों के सामने है। ट्रस्टी बोर्ड इस क्षेत्र का इतिहास की जाँच करवाई ताकि आनेवाले समय में मन्दिर को झूठा न कहे। बाकी की जानकारी आप ट्रस्टी बोर्ड से प्राप्त कर सकते हो। इसी बीच सेनदा ने प्रश्न किया कि माँ का थान कहाँ है। पुरोहित लाल एकरंगा कपड़े से ढके पत्थर के दाहिने ओर सतह में एक सात-आठ इन्च व्यासवाले छिद्र की ओर ईंगित कर कहा- गर्भ गृह यहीं पर है पर मैंने नहीं देखा।
-तो क्या इसके नीचे कोई सुरंग है?
-देखो भैया ऐसा हीं कुछ मैंने भी सुना है पर सच्चाई का उद्घाटन किसी ने नहीं किया। बीना किसी लाग-लपेट के पुरोहित ने उत्तर दिया।
-यदि ऐसा कुछ है तो आपलोगों को पुरातत्व विभाग की मदद लेनी चाहिए।
-पुरातत्व विभागवाले वहीं पहुँचते हैं जिनमें उन्हे निरपेक्षता दिखाई देती है और वैसे भी किसी विदेशी इतिहासकार ने इस स्थान का जिक्र अपनी रचना में नहीं किया है। इस देश के इतिहासकारों को तो इण्डिया में चारों ओर मिथ्या आडम्बर दिखाई देता है कारण जानते हैं बीना परिश्रम के अर्थात दान ग्रहण करने में फूले नहीं समाते हैं, भले हीं यहाँ ज्ञान-विज्ञान का भण्डार प्राचीनकाल से हीं समृद्ध है। युवा पुरोहित अपनी बात को समाप्त कर गहरी साँस लिया। हम दोनो के बाद नविन डाली लिये सामने उपस्थित। पूजा-अर्चना के बाद हमलोग बाहर आये। मैने एकबार फिर मन्दिर के अन्दर के निर्माण कार्य पर नजर दौड़ाई, बनाने एवं बनवानेवाले की बौद्धिक और योजना सम्पन्न क्षमता का आकलन किया। मन्दिर के अन्दर ठण्ढा-गरम का अनुभव हीं नहीं हो रहा था जबकि मन्दिर के बाहर काफी गर्मी लग रही थी। मन्दिर के दिवारों में टेराकोटा पत्थर का कारुकार्य मन्दिर को दुर्ग का भ्रम पैदा करता है। पिछवाड़े में अर्द्धवृताकार स्थिती में एक पहाड़ी नाला है जो बरसात में अपनी जवानी पर इठलाती होगी पर इस समय बड़े-छोटे चट्टानों के बीच टेढ़ी-मेढ़ी पतली सी जलधारा के समान कल-कल निनाद कर रही थी। नाले के दोनों हीं ओर की ढलान हरित झाड़ियों से अपने को सँवारे मनोहर-मनोरम-मधुर लग रही थी। यह स्थल इतना सुन्दर और शांति प्रदान करनेवाला है कि हरेक आगन्तुक यहाँ नाला के किनारे आकर किसी भी चट्टान पर बैठकर प्रकृति का रुप निहारना पसन्द करेगा। इस स्थल को देख मुझे लगा कि प्राकृतिक सौन्दर्य का रसपान केवल दूर किसी भ्रमण-विलासी केन्द्र पर जाकर हीं नहीं बल्कि अपने घर के आस-पास भी कर सकते हैं। इस स्थल पर एक कहावत य़ाद आ गई”दूर का ढोल बड़ा सुहाना लगता है” और हम ढोल के आकर्षण में बँधे चले आगे बढ़ जाते हैं।