8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद हमसे दूर हो गये। उनकी पुण्यतिथि पर शायद ही कहीं उनका नाम सुनने को मिला। उनके प्रति उन्हीं के माध्यम से प्रस्तुत इस कविता के मार्फत उनको मेरी श्रद्धांजलि।मुंशी प्रेमचंद
मुझे याद करने की
कोई आवश्यकता नहीं..
न ही मेरी प्रतिमा पर
एक पुष्प चढ़ाने की जरुरत.
मैं आज भी विद्यमान हूं
अपनी कहानियों में
उपन्यासों में
कुल मिलाकर अपने साहित्य में
आमलोगों के बीच।
मैं विद्यमान हूं अपनी
कहानियों के हर पात्रों के साथ
देहांत को अगर तुम..
मेरी मौत मानते हो
तो यह तुम्हारी भूल है
फिर भी यदि तुम
मुझे मरा हुआ मान ही चुके हो
तो इतना तो जरुर मानते होगे
कि
मेरा साहित्य अभी तक जिंदा है..
........................
..........होरी मरके भी जिंदा है
वह हर बार जिंदा होता है
और मरकर आंखों में ला देता है आंसू
जिंदा है धनिया
जिंदा है गोबर
घीसू और माधव सभी जिंदा हैं..
पर दुख की बात
इनका संदर्भ
अभी तक खत्म नहीं हुआ है..
यदि मेरे साहित्य ने
तुम्हें कहीं से भी अंदर तक झकझोरा..
तो वही मेरी पूंजी है
और उससे यदि तुममें
किञ्चित भी परिवर्तन आया
तो वही मेरे प्रति तुम्हारी
सच्ची श्रद्धांजलि है
वैसे भी तुम्हें मनाने की जरुरत नहीं है मेरी पुण्यतिथि
यह काम तुम छोड़ दो मेरे उपर
जिस दिन हमारे समाज में
होरी, घीसू और माधव का
फिर जन्म नहीं होगा
उस एकदिन मैं मनाऊंगा
अपनी मौत का जश्न
उस एकदिन मनाऊंगा
मैं अपनी मौत का जश्न।
आपका ---मुंशी प्रेमचंद
---राकेश कुमार श्रीवास्तव
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