वो कहते रहे कि
लोगों को समझने का ठेका
उन्होंने ही लिया था
कब्र तक पांव पहुंचे
..तो पता चला
नज़रिया किसी और का था
चश्मा किसी और का
चश्मा जब तक उतरा
अफसोस के लिये
कोई घर नहीं बचा था
पश्चाताप करके भी होता क्या
न वो उदास सुनहरे पल ही बचे थे
न सताये गये लोग
बचा था तो सिर्फ
कंक्रीट का खंडहर
अब वो चाहकर भी
कुछ नहीं कर सकते
जिन्होंने उन्हें चुपके से
काला चश्मा पहना
सारी दुनिया काली दिखाने में हासिल कर ली थी सफलता
अव्वल तो उन्होंने उनके चश्मे में
एक सूई सी सुराख कर
हरी साड़ी में
उस सुराख से आती हुई
नज़रों को घेर
उनके लिये उम्मीद की एक नई किरण..
एक नई रश्मि बन अपने एहसानों का बोझ डाल दिया कि देख ले मुझे
उम्मीद की एकमात्र किरण तुम्हारे ईर्द गिर्द इस घनघोर स्वार्थी अंधकार में..
वो कहते रहे कि उनसे बड़ा न्यायकर्ता कोई नहीं..
वास्तव में वे थे भी..
उनसे कभी किसी पर अन्याय होता नहीं देखा गया..
उन्होंने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किया..
पर शक्तिशाली तो वे थे ही..
और हाथी को कहां पता चलता है..
कि अंजाने में वह कितने चींटियों को मसलता जाता है
उन्होंने कभी जुल्म नहीं किये
जुल्म तो बस हो गये..
क्योंकि वो तो अपनी नज़रों से दुनिया को देखते थे..
पर ठगिनी
तो उनकी आंखों पर अपनी समझदारी का शीशा चढ़ाने में हो गयी थी कामयाब
वो बहुत न्यायप्रिय थे
पर कब वो बिना रिश्वत के ही
बिना दूसरे पक्ष को सुने एकतरफा फैसला देना शुऱू कर दिया था उन्हें पता नहीं था
जब तक पता चला वो ऐश्वरिक न्याय के घेरे में थे....और दूर एक पत्थर पर अपनी कामयाबी पर बैठकर वह ठगिनी अट्टहास
किये जा रही थी
मगर वो तो एहसानो में दबे हुए थे
मगर थे तो न्यायप्रिय!
सहर्ष सजा भुगतने को तैयार हो गये..
भगवान ने उन्हें स्वर्ग दिया पर एकांतवास का..
वो न्यायप्रिय थे..
वो न्यायप्रिय थे..
मगर एहसानों में दबे हुए
उन्हें पता नहीं चला कि
अपने नीचे जाने अंजाने कितनों को
कितने निरीह व बेकसुरों को दबा कर मार चुके हैं
अब तो कुछ नहीं हो सकता
शिवाय पछतावे के
क्योंकि ठगिनी का तो उन पर एहसान था....
लोगों को समझने का ठेका
उन्होंने ही लिया था
कब्र तक पांव पहुंचे
..तो पता चला
नज़रिया किसी और का था
चश्मा किसी और का
चश्मा जब तक उतरा
अफसोस के लिये
कोई घर नहीं बचा था
पश्चाताप करके भी होता क्या
न वो उदास सुनहरे पल ही बचे थे
न सताये गये लोग
बचा था तो सिर्फ
कंक्रीट का खंडहर
अब वो चाहकर भी
कुछ नहीं कर सकते
जिन्होंने उन्हें चुपके से
काला चश्मा पहना
सारी दुनिया काली दिखाने में हासिल कर ली थी सफलता
अव्वल तो उन्होंने उनके चश्मे में
एक सूई सी सुराख कर
हरी साड़ी में
उस सुराख से आती हुई
नज़रों को घेर
उनके लिये उम्मीद की एक नई किरण..
एक नई रश्मि बन अपने एहसानों का बोझ डाल दिया कि देख ले मुझे
उम्मीद की एकमात्र किरण तुम्हारे ईर्द गिर्द इस घनघोर स्वार्थी अंधकार में..
वो कहते रहे कि उनसे बड़ा न्यायकर्ता कोई नहीं..
वास्तव में वे थे भी..
उनसे कभी किसी पर अन्याय होता नहीं देखा गया..
उन्होंने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किया..
पर शक्तिशाली तो वे थे ही..
और हाथी को कहां पता चलता है..
कि अंजाने में वह कितने चींटियों को मसलता जाता है
उन्होंने कभी जुल्म नहीं किये
जुल्म तो बस हो गये..
क्योंकि वो तो अपनी नज़रों से दुनिया को देखते थे..
पर ठगिनी
तो उनकी आंखों पर अपनी समझदारी का शीशा चढ़ाने में हो गयी थी कामयाब
वो बहुत न्यायप्रिय थे
पर कब वो बिना रिश्वत के ही
बिना दूसरे पक्ष को सुने एकतरफा फैसला देना शुऱू कर दिया था उन्हें पता नहीं था
जब तक पता चला वो ऐश्वरिक न्याय के घेरे में थे....और दूर एक पत्थर पर अपनी कामयाबी पर बैठकर वह ठगिनी अट्टहास
किये जा रही थी
मगर वो तो एहसानो में दबे हुए थे
मगर थे तो न्यायप्रिय!
सहर्ष सजा भुगतने को तैयार हो गये..
भगवान ने उन्हें स्वर्ग दिया पर एकांतवास का..
वो न्यायप्रिय थे..
वो न्यायप्रिय थे..
मगर एहसानों में दबे हुए
उन्हें पता नहीं चला कि
अपने नीचे जाने अंजाने कितनों को
कितने निरीह व बेकसुरों को दबा कर मार चुके हैं
अब तो कुछ नहीं हो सकता
शिवाय पछतावे के
क्योंकि ठगिनी का तो उन पर एहसान था....
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