शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

मेरी स्मृति

कॉलेज के दिनों में लिखी गई मेरी एक कविताः-



एक सुखद स्मृति..
छा गई है मेरे स्मृति-पटल पर
जो बाध्य करती है मुझे
अपनी छवि बनवाने की
... एक कोरे कागज पर।
चाहती है वह
मेरे स्मृति-पटल से निकल
वाह्यरुप धरने की
उसकी इस चाहत पर
मैं उसे आकंने का
करता हूं कई असफल प्रयास..
पर वह नहीं बनती
इस प्रयास में बन जाती हैं
नवीन आकृतियां
जिन्हें मैं जानता तक नहीं
जिन्हें शायद ही कोई पहचान सके
मैं कूढ़ जाता हूं
जब-जब ही मैं उसे आंकने बैठता हूं
वह या तो लजाती हुई,
या मुझसे ठिठोली करती हुई
मेरे अंतर में ही
विलीन हो जाती है कहीं
कैसे बनाऊं मैं उसे
जब उसे विलुप्त ही हो जाना है
प्रकृति-प्रदत्त हुनर तो पाया नहीं मैंने,
कोई भी चित्र खींच दूं फटाफट
एक चित्रकार की भांति
बहरहाल,
मैं उसे अपनी विस्मृतियों में
ढूंढता रह जाता हूं
अंततः मैं झूंझलाकर फेंक देता हूं
पैंसिल और कागज..
और तब विलीन हुई यही स्मृति..
फिर मेरे सामने खड़ी हो
खिलखिलाती हुई सी प्रतीत होती है
इससे लगता है मुझे चिढ़ाती है वह
लेकिन ओ स्मृति!
तेरी इन उच्छृंखलताओं से
क्या मैं चिढ़ जाऊंगा
तुम्हारा चिढ़ाना और मुझ पर हंसना
शायद मुझे अच्छा लगता है
तभी तो मैंने तय किया है
अब तुम्हारी छवि नहीं बनाऊंगा
अब तो मैं बनाऊंगा
अनजानी, अनसोची, आकृतियां
ताकि कभी इत्तेफाक हो
और उन आकृतियों को बनाते-बनाते
मेरी स्मृति में खेल रही तू
तेरी प्यारी सी छवि बन जाय
और मुझे तुम्हारा वाह्याकार मिल जाय !

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