अनिमेष..
चल रही है रैना
कभी तो होता है संदेह
कि घड़ी चलती है
या काल-
या फिर सूर्य कि चंद्रमा
मुझे तो शाश्वत..
वर्तमान दीखता है
सुबह उठा..
...वर्तमान...!?
रात हुआ..
वर्तमान
और अभी?
वर्तमान
तुम कहते हो
मैं पंगु हो गया हूं?
कर्महीन, गतिहीन
..निस्तेज पड़ा!
ऐसा कैसे
कह सकते हो तुम?
फिर मेरी यह चमड़ी
बूढ़ाs कैसे रही है?
दृष्टिभ्रम हो गया है
जो तुम्हें चल-अचल
और अचल-चल
महसुस होता है..
अरे भई!
कोई कर्म करे
या न करे
उसका कर्म तो-
हो ही जाता है
उनकी प्रकृति
उनका कर्म कर देती है
पर तुम्हें अपने कर्म करने पर
इतना गर्व क्यों है?
मैंने देखा है-
उस कर्मरत छात्र को-
सुना होगा शायद तुमने भी
जो खुशी से झूमते हुए
लाता है खबर
परीक्षा में पास होने का..
और दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है
सरेआम-सरेराह!
दर्शक देखते हैं
...क्षत-विक्षत शरीर
...और...और..
मुचड़ी हुई
रिजल्ट...!
कितने ही हैं
जिनका जीवन
कट जाता है
खाते कमाते..
कर्मरत तो सभी हैं
अंतर सिर्फ इतने का है
कि-
कोई रोटी कमाता है
कोई सहेजता है
कोई बांटता है
और कोई
रोटी कमाने का नया-नया
तरीका ईजाद करता है
लेकिन ऐसा भी क्या ..
आखिर में तो
प्रकृति द्वारा क्रियान्वित
एक ही कर्म के नेपथ्य में
सभी समा जाते हैं...
सभी को समा जाना है..
क्यों;
हम कर्महीनों को हमारी प्रकृति
अपने कर्म के क्रम में ला खड़ा नहीं कर देती है?
कर्मरत आखिर है कौन?
क्या ये समय
या फिर ये प्रकृति
प्रकृति और समय
समय और प्रकृति..
कहीं ये दोनों ही तो नहीं..
-जो-
पूरे ब्रह्मांड के करोड़ों-करोड़ों
आकाशगंगाओं
एवं अरबों-खरबों पिंडों की
असीम उर्जाओं को समेटे हुए हैं
कहीं ये ही तो नहीं..
जिसमें हर पल बनने
एवं हर पल बिगड़ने की प्रक्रिया
निरंतर हो रही है
तो कर्मरत कौन?
हम, तुम, प्रकृति,
या फिर ये समय-
सतत्! बिल्कुल सतत्!!??
चल रही है रैना
कभी तो होता है संदेह
कि घड़ी चलती है
या काल-
या फिर सूर्य कि चंद्रमा
मुझे तो शाश्वत..
वर्तमान दीखता है
सुबह उठा..
...वर्तमान...!?
रात हुआ..
वर्तमान
और अभी?
वर्तमान
तुम कहते हो
मैं पंगु हो गया हूं?
कर्महीन, गतिहीन
..निस्तेज पड़ा!
ऐसा कैसे
कह सकते हो तुम?
फिर मेरी यह चमड़ी
बूढ़ाs कैसे रही है?
दृष्टिभ्रम हो गया है
जो तुम्हें चल-अचल
और अचल-चल
महसुस होता है..
अरे भई!
कोई कर्म करे
या न करे
उसका कर्म तो-
हो ही जाता है
उनकी प्रकृति
उनका कर्म कर देती है
पर तुम्हें अपने कर्म करने पर
इतना गर्व क्यों है?
मैंने देखा है-
उस कर्मरत छात्र को-
सुना होगा शायद तुमने भी
जो खुशी से झूमते हुए
लाता है खबर
परीक्षा में पास होने का..
और दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है
सरेआम-सरेराह!
दर्शक देखते हैं
...क्षत-विक्षत शरीर
...और...और..
मुचड़ी हुई
रिजल्ट...!
कितने ही हैं
जिनका जीवन
कट जाता है
खाते कमाते..
कर्मरत तो सभी हैं
अंतर सिर्फ इतने का है
कि-
कोई रोटी कमाता है
कोई सहेजता है
कोई बांटता है
और कोई
रोटी कमाने का नया-नया
तरीका ईजाद करता है
लेकिन ऐसा भी क्या ..
आखिर में तो
प्रकृति द्वारा क्रियान्वित
एक ही कर्म के नेपथ्य में
सभी समा जाते हैं...
सभी को समा जाना है..
क्यों;
हम कर्महीनों को हमारी प्रकृति
अपने कर्म के क्रम में ला खड़ा नहीं कर देती है?
कर्मरत आखिर है कौन?
क्या ये समय
या फिर ये प्रकृति
प्रकृति और समय
समय और प्रकृति..
कहीं ये दोनों ही तो नहीं..
-जो-
पूरे ब्रह्मांड के करोड़ों-करोड़ों
आकाशगंगाओं
एवं अरबों-खरबों पिंडों की
असीम उर्जाओं को समेटे हुए हैं
कहीं ये ही तो नहीं..
जिसमें हर पल बनने
एवं हर पल बिगड़ने की प्रक्रिया
निरंतर हो रही है
तो कर्मरत कौन?
हम, तुम, प्रकृति,
या फिर ये समय-
सतत्! बिल्कुल सतत्!!??
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